श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 50 वी कड़ी ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 50 वी कड़ी ..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

पाँचवा अध्याय  : – कर्म-सन्यास योग (कृष्ण भावना भावित कर्म)                                                                                                        

अर्जुन उवाच – 

अर्जुन बोले हे कृष्ण आप, कर रहे प्रशंसा दोनों की,

सन्यास करूँ मैं कर्मों का, या कर्म करूँ मति है भ्रम की।

कल्याण निहित किसमें मेरा, कर एक सुनिश्चित प्रभु कहिये,

सन्यास गहूँ या कर्म करूँ मेरे मन की द्विविधा हरिये।-1

भगवान उवाच

भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, दोनों ही पथ है श्रेयस्कर,

हो ज्ञान योग या कर्म योग, उनका अवलम्बन है हितकर।

पर कर्म भक्ति भावना भक्ति, सन्यास कर्म से है उत्तम,

परिपूरित भक्ति-प्रीति रहती, जब भक्ति योग से जुड़ता मन।-2

 

हे अर्जुन द्वेष न जो करता, इच्छित न कर्मफल है जिसको,

वह पुरुष नित्य सन्यासी है, द्वन्दों से मुक्त समझ उसको।

वह द्वन्द्वातीत महाबाहो, सुख पूर्वक सारे काम करे,

ब्रह्म वह ब्रह्म भावना से, भव बन्धन से नित मुक्त रहे।-3

 

सन्यास और यह कर्म योग, है पृथक कथन अज्ञानी का

दोनों समान फल के दाता, यह मत है सम्यक ज्ञानी का।

दोनों में से यदि एक किसी का अवलम्बन करता है जो,

फलस्वरूप प्राप्ति परमात्मा की, हे अर्जुन होती है उसको। -4

 

सन्यास करे उपलब्ध जिसे, वह वही कर्म से जो मिलता

सन्यास मार्ग या कर्म मार्ग में भेद न ज्ञानी को दिखता।

दोनों का है गन्तव्य एक, जो पुरुष देखता है ऐसा,

वह ही यथार्थ को देख रहा, मन उसका नहीं भ्रमित रहता।-5  क्रमश :…