
तेरहवाँ अध्याय : प्रकति-पुरुष-विवेक योग
जीवों के जो आकार विविध, इच्छाओं के परिणाम रहे,
सम्बन्ध न आत्मा का उनसे, जो यह देखे जो यह समझे।
विस्तार रहा परमात्मा का, जीवों में जिसने यों देखा
वह ब्रह्मतत्व को प्राप्त हुआ, उसने यथार्थ को ही लेखा।-30
आत्मा यह दिव्य सनातन है, अरू यह माया के परे रही,
दृष्टा शाश्वत तत्वों के जो, यह बात उन्होंने सत्य कही।
प्राकृत शरीर में रहकर भी, यह आत्मा रही अलिप्त सदा,
कुछ भी यह करती नहीं कभी, कर्मों का फल न उसे लगता।-31
ज्यों सर्वव्याप्त आकाश रहा, सूक्ष्मति सूक्ष्म रहता अलिप्त,
त्यों तन में ब्रह्मभूत जीव, बसता पर इनसे वह अलिप्त।
प्राकृत नेत्रों से आत्मा को, देखा न कभी जा सकता बसता
देहों में वह असंग, अति सूक्ष्म न पाया जा सकता।-32
जिस तरह अकेला एक सूर्य, ब्रह्माण्ड प्रकाशित कर देता,
देहावस्थित आत्मा त्यों ही, चेतनता तन में भर देता।
आलोक चेतना का ही है, संचारित जो करता जीवन
आत्मा है तो है तन जीवित, बिन आत्मा के मिट्टी है तन।-33
यह जीव व्यष्टि-चेतन है पर, परमात्मा है समष्टि चेतन ।
क्षेत्रज्ञ जीव, क्षेत्रज्ञ विभू वह क्षेत्र कि भासित है जो मन
यह भेद देह अरू देही का, साधन विभक्ति का बन्धन से पाते
हैं परमधाम अर्जुन जो तात्विक ज्ञान दृष्टि रखते।-34
॥ इति त्रयोदशम अध्याय ॥