
अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष-सन्यास योग
अपने अपने गुणधर्म निभा, संसिद्धि प्राप्त जन कर लेते,
संलग्न कर्म में अपने हो, निज आत्मोन्नत का पथ गहते।
अपने स्वभाव में रहकर ही, वे अपना आत्मोन्नयन करें,
अपनी सीमा में सिद्धि मिले, यह तत्व सहज, इसको समझे।-45
जिस परमेश्वर ने सृष्टि रची, जिसने हम सबको जन्म दिया,
जो सबमें रहकर सबका है, जिसने हम पर उपकार किया।
जब करता अपना कर्म मनुज, वह उसको ही तो पूज रहा,
संसिद्धि कर्म से पा जाता, अन्तर्यामी न अबूझ रहा।-46
जो कर्म दूसरे का उसको, चाहे हम अच्छा कर पायें,
पर बेहतर वह निजकर्म रहा, जिनमें न कुशलता हम पाये।
जो कर्म प्रकृति से नियत रहा, कर्तव्य कर्म वह कहलाता,
कर्तव्य-कर्म करने वाला, पातक न कभी भी बन पाता।-47
जिस तरह धुएँ से अग्नि ढँकी, सब कर्म दोष से ढंके हुए,
निर्दोष न कोई कर्म रहा, कोई न कर्म से विरत रहे।
इसलिये कर्म स्वाभाविक जो, हो दोष रहित पर किये चलो,
कर्तव्य कर्म करणीय रहा, उसको न परंतप कभी तजो।-48
यह समझ कि मैं हूँ भिन्न अंश, परमेश्वर का जीवन पाया,
सच्चा सन्यास रहा मन का, जिसने यह सत्य समझ पाया।
संसिद्धि प्राप्त होती उसको, कर लेता आत्म नियंत्रण जो,
आसक्ति वस्तुओं की तजता, ठुकराता प्राकृत सुख को जो।-49 क्रमशः ….