श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 135 वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 135 वी कड़ी.. 

अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष-सन्यास योग

हे अर्जुन बुद्धि सात्विकी वह, जो द्वन्द्वात्मक जग को जाने,

करणीय रहा क्या अकरणीय यह भेद बुद्धि जो पहिचाने।

जग की प्रवृत्ति, निवृत्ति उसे, जाने जो जाने बन्धन क्या,

क्या मोक्ष रहा कैसे मिलता, क्या अभय रहा भय होता क्या।-30

जो बुद्धि न अन्तर कर पाती क्या धर्म, अधर्म रहा कैसा,

कर्तव्य रहा क्या अर्कतव्य क्या, कार्य आकार रहा कैसा,

क्या योग्य अयोग्य उचित, अनुचित, इनका न भेद जो कर पाती,

वह बुद्धि राजसी कही गई, जो रही मनुज को भटकाती।-31

 

जो विवश रही अज्ञानावृत्त जो अन्धकार में हो डूबी,

विपरीत विधानों के चलना, जिसकी अपनी होती खूबी।

माने अधर्म को धर्म सदा, अरू धर्म अधर्म लगे जिसको,

वह बुद्धि तामसी कहलाती, उल्टा पथ गमन रूचे जिसको।-32

 

धृति रही सात्विकी वह अर्जुन, जो प्रभु चिन्तन में अटल रहे,

योगाभ्यास से सिद्ध अचल, जो भावाविष्ट अनन्य रहे।

मन प्राण इन्द्रियाँ जिसके वश, अविचल हो जाती एकनिष्ठ,

कहलाती अव्याभिचारिण्या, पदवी होती इसकी विशिष्ट।-33

 

धृति रही राजसी वह अर्जुन, जो इच्छायें उत्पन्न करें

आसक्ति जगाये जीवन में, मन में नूतन उत्साह भरे।

जो धर्म अर्थ अरू काम रूप, फल पाने चाह जगाती हो,

मन प्राण, इन्द्रियाँ, इनको जो, सुख पाने एक बनाती हो।-34    क्रमशः ….