
अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष-सन्यास योग
अज्ञान मोह के वशीभूत, जो कर्म किया जाता अर्जुन,
परिणाम कर्म का क्या होगा, इसका न पूर्व जिसका चिन्तन।
भावी बन्धन हिंसा अधर्म से, रहता है जिसका नाता।
स्वच्छन्द, निरंकुश, परपीड़क वह कर्म तामसी कहलाता।-25
वह कर्ता सात्विक कहलाये, आसक्ति न जो रखता जग में,
वह धैय और उत्साह युक्त, चलता असंग जीवन मग में।
वह अहंकार से रहित वीर, सम भाव रखे हित अनहित में,
निर्द्वन्द्व रहे वह निर्विकार, समता धारे रहता चित में।-26
लेकिन आसक्त कर्मफल की, मन में जो चाह लिये अर्जुन,
इच्छायें नई नई लेकर, आकुल व्याकुल नित जिसका मन।
ले चाह भोग की वह लोभी, नित रागद्वेष में निरत रहें
वह कर्ता राजस कहा गया, अशुचि वह हर्ष-विषाद करे।-27
कुछ कर्म विषिद्ध रहे उनको, करने जो जन आगे बढ़ता,
वह कर्ता तामस कहा गया, जो शास्त्र विरूद्ध कर्म करता।
वह विषयी हठी प्रपंची ठग, कपटी सबका अपमान करे,
आलसी, प्रमादी, विकल चित्त, उसका हर कार्य अपूर्ण रहे।-28
ये ज्ञान ज्ञेय अरू ज्ञाता के, ये भेद प्रकृति के गुणानुसार,
अब अर्जुन बुद्धि और धृति के, जो भेद करे उन पर विचार।
धृति रही धारणा शक्ति उसे, हम अलग बुद्धि से मान रहे,
दोनों के प्रकृति-गुणानुसार हम भेद पूर्ववत जान रहे।-29 क्रमशः ….