
अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’
अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “
श्लोक (७)
हे अर्जुन, सभी समय में तू, अविराम स्मरण कर मेरा,
तू साथ-साथ कर युद्ध रहा, जो कर्म कि रहा धर्म तेरा ।
मुझमें मन-बुद्धि युक्त होकर, अर्पित जिस क्षण हो जायेगा,
सन्देह न कर, तू उस क्षण में, मेरे स्वरुप को पायेगा ।
इसलिए पार्थ तू भज मुझको, मेरे स्वरुप का चिन्तन कर,
जो युद्ध कर्म तेरा स्वधर्म, उसका पालन कर उस पर चल ।
अर्पित क्रियाएँ कर सारी, मुझमें अपना मन बुद्धि लगा,
अपना जीवन कर ले कृतार्थ, तू अन्त समय में मुझको पा ।
आंखों से देख मुझे केवल, चिन्तन करता तो कर मेरा,
बाचा से बोले बोल मुझे, जो काम करे कर बस मेरा ।
मद्रूप हुआ हर गतिविधि में, तू केवल मुझको पायेगा,
तन मिटने का मिट जायेगा, तू नहीं कभी मिट पायेगा ।
श्लोक (८)
हे पार्थ, रहा यह नियम कि जो, परमेश्वर का नित ध्यान करे,
एकाग्र चित्त उसमें रखकर, अभ्यास-योग से युक्त रहे ।
जाए न दूसरी ओर चित्त, यह साध मनुज जो साध सका,
होता उसको वह पुरुष प्राप्त, जो दिव्य प्रकाश युक्त रहता
अनुराग करो उत्पन्न चित्त में, आत्मा के प्रति हे अर्जुन,
बस सर्वेश्वर का रहे ध्यान, हो केवल उसका ही चिन्तन ।
करते करते अभ्यास एक दिन योग यही सध जाता है,
कर चले पंगु भी यदि प्रयत्न, तो वह पर्वत चढ़ जाता है ।
वह पश्चाताप निरर्थक है जो मरणासन्न मनुज करता,
उससे न हुआ करती रक्षा, उद्धार नहीं वह दुख करता ।
अभ्यास निरन्तर करने से करने से चित्त नान्यगामी,
उद्धार मनुज कर पाता है, यह युक्ति साधकों ने जानी ।
हे पार्थ अनन्य चित से जो, नित परम पुरुष का ध्यान करे,
अभ्यास युक्त रहकर अविचल, जो दिव्य अलौकिक भाव भरे ।
वह नित्य निरन्तर चिन्तन से, अन्तर्यामी को पा जाता,
अन्तर्यामी को पाकर वह, मेरे स्वरूप का हो जाता ।
श्लोक (९)
उन पुरुषोत्तम का करे ध्यान, सर्वज्ञ अनादि नियन्ता जो,
शिक्षक सबका अणु से भी लघु, प्रतिपालक सर्वजगत का जो।
सब लोकों को करता धारण, जो है अचिन्त्य जो है अगम्य,
तेजोमय सूर्य समान दिव्य, भौतिक तत्वों से परे,रम्य ।
परमात्मा सब कुछ जान रहा, क्या भूत भविष्य क्या वर्तमान,
वह सूक्ष्म सूक्ष्म से अधिक रहा, वह है महान से भी महान ।
वह रहा नियन्ता धाता वह सबमें, सबसे पर रहा दूर,
चिन्तन में पूर्ण न आ पाए आदित्य दिव्य वह ज्ञान रूप ।
कवि वह, वह रहा पुराण पुरुष, पालक वह रहा सकल जग का,
स्वामी वह रहा स्वामियों का, रखता सब का लेखा जोखा ।
ब्रह्माण्ड विश्व का धारक वह,रहता बनकर जीवन धारा,,
वह दिव्य प्रकाश रहा ऐसा, आलोकित जिससे जग सारा ।
कैसा है परमानन्द सुनो अर्जुन, तुमको बतलाता हूँ,
वह निराकार अस्तित्व रहा, जिसमें जग सारा पाता हूँ।
मानन्द वियुक्त असीम रहा, उसकी अति व्यापक दृष्टि रही,
अमृत की धारा है वह जो सर्वज्ञ रही, सर्वत्र बही ।
करना अनुमान कठिन उसका, हर अनुभव से वह रहा परे,
वह रहा अपरिमित अपरिमेय, अपने सिर पर जग-भार धरे ।
हो तेज जहाँ क्या अन्धकार कर सकता वहाँ प्रवेश कभी ?
अज्ञानी चर्मचक्षुओं से, वह नहीं दृष्टिगत हुआ कभी ।
वह सुख ऐसा सूर्य रहा, जो कभी न अस्त होता अर्जुन,
जड़ चेतन जिससे भसित हैं, आलोकित जिससे सकल भुवन ।
निर्दोष ब्रह्म वह उसके ही, चिन्तन में चित्त लगाना है,
इसलिए कि अन्त समय में उसको नहीं भूलने पाना है ।
सम्बन्धरहित यह ब्रम्ह नहीं, यह ब्रम्ह रुप ईश्वर का है,
जो जन-जीवों का परमात्मा, जो दृष्टा है, जो सृष्टा है ।
जो शासक है सारे जग का, जो अन्धकार का रोधक है,
जो भक्ति भावना वशीभूत, जग के पापों का शोधक है ! क्रमशः…