‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 71 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 71 वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (३५,३६)

श्री भगवानुवाच :-

हे कुन्तीनन्दन महाबाहु, मन चंचल है सन्देह नहीं,

है कठिन इसे वश में करना लेकिन यह रहा असाध्य नहीं ।

अभ्यास निरन्तर करने से, अरु अनासक्ति करके धारण,

साधा जा सकता है मन को, कर योग-क्रिया का पारायण ।

 

मन को न किया वश में जिसने वह आत्मरूप लख सके नहीं,

साक्षात्कार है कठिन उसे, योगाभ्यास है सफल नहीं ।

पर जिसने मन को जीत लिया, उपयुक्त जुटाए अरु साधन,

कहता हूँ, निश्चित सफल रहे, साफल्य दिलाता उसको मन ।

 

बस एक लक्ष्य प्रभु का लेकर, मन को उस ओर प्रवृत्त करे,

बहु भाँति प्रयत्न करे साधक, मन को अपने निग्रहीत करे ।

है सर्वोपरि परमात्मा ही, वह एकमात्र है परम तत्त्व,

उसको पाना ही जीवन का, जीवन में हो एकमेव लक्ष्य ।

 

दृढ़ ध्यान धारणा हो मन में इसका साधक अभ्यास करे,

धीरज से श्रद्धा भक्ति साथ,मन में तब इष्टदेव उतरे ।

करता रहकर मानस-पूजा मन निर्मल होता जाता है,

मन, वाणी, श्वास, नाड़ियों से जप साधक करता जाता है।

 

भगवत उपदेशों का पारायण, श्रवण मनन का असर पड़े,

मन भक्तिभाव में लीन हुआ, आराध्य देव से जुड़ा चले।

यह सतत साधना लाती है,मन के ही भीतर परिवर्तन,

हम करते जिसे नियन्त्रण, साधक के वश में हो जाता मन ।

 

है बात एक अच्छी मन की,रस जहाँ मिले यह रम जाता

मिलती प्रसन्नता जहाँ इसे, उससे यह दूर न हो पाता ।

जिसका चस्का लग जाता है, बस वहीं वहीं यह मँडराता,

साधक योगी वह सफल, आत्म सुख तक इसको जो ले जाता ।

 

चंचलता मन की मिट जाती, गिरती आसक्ति, कामनाएँ,

हो अनासक्त वैराग्य भाव को, साधक गण मन को पाएँ।

सध जाता है वैराग्य, न मन फिर रहने पाता है चंचल,

करने लगता है मनन इष्ट का, हो जाता है वह निर्मल ।

 

अभ्यास चित्त की धारा को, परमात्मा तक पहुँचाता है,

विषयों में भटक गई धारा पर बाँध विराग बनाता है।

अभ्यास किए वैराग्य बढ़े, वैराग्य बढ़े, अभ्यास बढ़ा,

परिपूरक दोनों रहे, कि इनका मन पर अपना रंग चढ़ा

 

लगने लगता है जग अनित्य, घटने लगता है राग मोह,

होने लगता है अद्वितीय सत्ता का उसको आत्मबोध ।

यह कठिन नहीं तुमको अर्जुन, तुम रहे विक्रमी श्रेष्ठ वीर,

तुम करो इसे अपने वश में, क्या उचित तुम्हें होना अधीर ।

 

जो यत्न नहीं करते, अपने मन पर अपना वश रखने का,

उनके मन पर अधिकार पूर्ण तब राग द्वेष का हो चलता ।

जिस तरह करे बस उछल कूद, बन्दर झाड़ों पर यहाँ वहाँ,

बहु शाखा वाले भोगों में, मन रमा, कि पाता मुक्ति कहाँ?

 

मन वशीभूत हो गया कि उसको बुद्धि स्वात्म से जोड़ चले,

परमात्मा रहा अभिन्न तत्व, उसमें लय होने मोड़ चले ।

सम्पूर्ण चराचर जगत बीच, भीतर बाहर आराध्य दिखे,

वह एक रूप परमात्मा से हो गया कि सारा द्वैत मिटे ।

 

कितने ही साधन हैं अर्जुन, जो मैंने तुमको बतलाये,

अपनाकर जिनको योगीजन, मुझ परम ब्रह्म को वे पाये ।

अपने मन को वश में करना, तुमको न रहा दुष्कर अर्जुन,

सध जाता सहज समत्व योग, वश में जिसके होता है मन ।

 

यह सही कि मन के लिए, योग पाना होता है सरल नहीं,

लेकिन जिसने कर लिया, स्वयं को संयत होता सफल वही ।

समुचित उपाय,दृढ़ निश्चय से, साधक पूरा संकल्प करे,

संयत हो मन, तब ही अर्जुन, साधक में समत्व योग उतरे। क्रमशः…