रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (१०,११)
साधन करता है ध्यान योग, जो रहा जितात्मा जीवन में,
बसता है केवल ब्रह्म भाव, हो गये शून्य उसके मन में ।
यह ध्यान योग अति श्रेष्ठ रहा, जिसका करता योगी पालन,
सबसे पहिले अपने मन में, स्थिरता वह करता धारण ।
अनुभव पाने के लिए उसे अभ्यास कठिन करना पड़ता,
पग फूँक फेंककर धरती पर उसको आगे धरना पड़ता ।
सीढ़ी दर सीढ़ी वह सधकर ऊँचा ऊँचा उठता जाए,
पा जाए आत्मरूप अपना, फिर ब्रह्मरूप वह हो जाए ।
योगाभ्यास के लिए प्रथम उपयुक्त जगह का चयन करें,
अर्थात जगह वह ऐसी हो मन में न अशान्ति जहाँ उपजे ।
जो गई बसाई हो सत्पुरुषों के द्वारा, सत्कर्मों से,
सन्तोष शान्ति के निर्झर मानो वहाँ रहे झरझर झरते ।
अभ्यास हेतु प्रेरित करता हो मानो वातावरण स्वयं,
आस्था वैराग्य जगे मन में, अन्तस का हो आनन्द न कम ।
जो स्थान रहा अति शुद्ध, रहा उत्तम साधक के लिए सदा,
हो जहाँ साधकों की बस्ती, जिनके मन में वैराग्य जगा ।
हो धूल धुआँ या शोर नहीं, अनचाही भटकी भीड़ न हो,
होना ही हो तो पेड़, फूल, जल स्रोत, कुञ्ज हरियाली हो ।
हो सौम्य रोशनी सूरज की, तरुओं की शीतल छाँह सुखद,
भावित करता मन-प्राणों को, हो विहग वृन्द का गान मुखर
मन को पुलकित करने वाली, बहती हो शीतल मन्द-सुगन्ध-हवा,
प्रभु से अपनत्व बढ़ाता सा, मानो प्रभु का हो प्यार बहा ।
हो गुप्त गुहा या देवालय, मन चाहे करना जहाँ ध्यान,
स्फुरित आप ही होता हो, मानो कण कण से महत ज्ञान ।
हो तीर नदी का मनभावन, या शिखर सुहाने पर्वत का,
स्वाभाविक छटा प्रकृति की हो,जिसमें मन सहज हुआ रमता ।
अपने तल से चेतनता का तल, ज्यों ऊँचा उठ जाता हो,
अवचेतन चेतन युज्ज जहाँ, जग भीतर का जग जाता हो ।
ऐसा एकान्त वास चुनकर, अपना मन सुस्थिर करे वहाँ,
आसन की करे योजना वह, सध सके सहज ही योग जहाँ ।
आसन कोमल कुश का नीचे, कृष्णाजिन हो जिसके ऊपर,
फिर धूत वस्त्र की तह करके, आसन बनता कृष्णाजिन पर ।
आसन न बहुत ही ऊँचा हो या रहे न वह अतिशय नीचा,
ठण्डक न सताये धरती की, खाये न चोट यदि तन गिरता ।
हिलने डूलने लगता शरीर, जब साधक साध निरत होता,
ऐसा भी होता है ध्यानी, सन्तुलन कभी तन का खोता । क्रमशः…