मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है ,
श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 50 वी कड़ी ..
चतुर्थोऽध्यायः – ज्ञान योग
दिव्य ज्ञान का योग, ज्ञान-कर्म-सन्यास योग “याने ज्ञान और कर्म के सच्चे -त्याग का योग
श्लोक (२७)
योग आत्म संयम का, साधन करते हैं कुछ योगी जन,
करें अग्नि में जिसकी अपने, इन्द्रिय कर्मों का अर्पण ।
प्राण शक्ति के सब, कर्मों का, भी जिसमें अर्पण करते,
अग्नि यज्ञ की पैदा करते हैं वे ज्ञान-अर्राण मथके ।
इस तरह पार्थ कुछ योगी जन, करते हैं क्षालन दोषों का,
अरणी वे बना हृदय की, चिन्तन से मन्थन करते उसका ।
धीरज का देकर भार, शक्ति की रज्जू से उसको मथते,
गुरु वाक्य शक्ति के आश्रय से, चिन्गारी वे पैदा करते ।
एकत्रित सभी वृत्तियाँ कर, ज्वाला प्रदीप्त करते हैं वे,
जो रिद्धि-सिद्धि का मोह, धूम्र शम दम से दूर हटाकर वे ।
निर्दोष सहज मन से समिधा, वे बना वासना को अपनी,
घृत मोह भाव का मिला, हवन से अग्नि तीव्र करते अपनी
फिर जीव रूप होतात्मा के, इन्द्रिय कर्मों की आहुति दे,
वे ऐक्यबोध अवमृथ अन्तिम आहुति, अपने हाथों में ले ।
इन्द्रियादि होम-द्रव्यों से करते रहते अपना पूर्ण हवन,
जो पुरोडाश बन रहता-आत्मा का सुख-करते उसे ग्रहण ।
इस तरह यज्ञ करके अर्जुन, हो जाते मुक्त कुछ त्रिभुवन से,
हैं यज्ञ विविध जिनका पालन, योगी जन करते हैं विधि से ।
फल प्राप्ति समान रही सबकी, क्रियाएँ चाहे भिन्न रहें,
बहुभाँति यज्ञ में आहुति दे, योगी अपना कल्याण करें ।
श्लोक (२८,२९)
भौतिक सम्पत्ति सभी अपनी या अपनी सकल तपस्या को,
यज्ञार्पित करते रहें लोग योगाभ्यास को स्वाध्ययन को ।
ये द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ रहे, ये योग यज्ञ अष्टांग योग
अरु ज्ञान यज्ञ वह रहा जिन्होंने होम दिया स्वाध्याय योग ।
अर्जुन ये सारे यज्ञ कठिन, है कठिन आचरण भी इनका,
जो विजय इन्द्रियों पर कर ले, निश्चित वह इन्हें प्राप्त करता ।
कर सकता यज्ञ पुरुष वह ही, सम्पन्न योग साधन से जो,
अपनी जीवात्मा होम सके, परमात्मा की वेदी में जो ।
कुछ प्राणायाम परायण हो, अभ्यास योग का करते हैं,
हो सफल प्राण – अपान साध अवस्थित समाधि में होते है ।
कुछ इन्द्रिय निग्रह करने को आहार नियन्त्रण में रखते,
वे योगी अपने प्राणों का ज्यों हवन प्राण में ही करते ।
श्लोक (३०)
कुछ योगी होते अपान में, आहुति देते प्राणवायु की.
कुछ होते जो प्राणवायु में, आहुति देते हैं अपान की ।
गति अपान की और प्राण की रोक लिया करते कुछ योगी,
प्राणों की प्राणों में, आहुति देते रहते हैं कुछ योगी ।
पूरक, रेचक, केवल कुम्भक प्राणायाम यज्ञ करते हैं,
रहते नियताहारी योगी, साधन का विचार रखते हैं ।
तरह तरह के यज्ञों का साधन उनको निष्पाप बनाता,
पा जाता यज्ञार्थ, सार यज्ञों का, संयम जो अपनाता ।
श्लोक (३१)
जो लोग यज्ञ के बाद बचा जो शेष करें उसका सेवन,
वह यज्ञ-शेष अमृत बनकर करता योगी का उत्कर्षन ।
वे पाते ब्रह्म सनातन को, जीवन की पाते सार्थकता,
परलोक दूर इहलोक मिटे उसका जो यज्ञ नहीं करता ।
श्लोक (३२)
इस तरह तुम्हें मैंने अनेक, अर्जुन जो यज्ञ बताये हैं,
विस्तार सहित वेदों में, उनके वर्णन पहिले आए हैं।
है सार सभी का एक कि कर्म यज्ञों का मूलाधार रहा,
वह परमात्मा को पा लेता, जिससे यज्ञों का यजन सधा ।
ब्रह्मा के मुख से निकले ये सब यज्ञ अनेक रहे अर्जुन,
मन- इन्द्रिय तन-क्रियाओं से जिनको यजते हैं योगी जन ।
हर भांति तत्व से जान उन्हें, उठ, अनुष्ठान तू कर उनका,
तू परम मुक्त हो जायेगा, उठ कर्म-यज्ञ में तू जुट जा । क्रमशः…