रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।श्लोक (६६)
रे त्याग सभी धर्मो को तू, गह ले तू मात्र शरण मेरी,
मैं सब पापों को हर लूँगा, कर दूँगा दूर विपद तेरी ।
तू शोक न कर उद्विग्न न हो, उद्धार करूँगा मैं तेरा,
हे अर्जुन तू प्रिय सखा रहा, मैं बना सारथी रे तेरा ।
तज अपने सब कर्तव्यों को, आ जा तू पार्थ शरण मेरी,
कर दूँगा पापमुक्त तुझको, हर लूँगा व्याधि सकल तेरी ।
कितना दयालु परमात्मा है, कितनी उदार उसकी इच्छा,
सारे अपराध क्षमा उसके, जो आत्म-समर्पण कर देता ।
प्रभु आत्म-समर्पण चाह रहा, बदले में देता शक्ति दान
आत्मा को सबल बनाता वह, जो बदल सके सारे पुराण ।
जीवन में ऊपर उठने का, यह रहा सरलतम मार्ग श्रेष्ठ,
इसमें सब धाराएँ विलीन, यह सार-सिन्धु सुख का यथेष्ट ।
अभिमुख हम उसकी ओर हुए, रम जाने देते उसे पूर्ण,
रहता न शेष फिर करने कुछ, दायित्व वहन वह करे पूर्ण ।
करवाता जो रुचता उसको, हमको सम्हाल कर रखता है,
गिरने देता है नहीं कहीं, उद्धार हमारा करता है
अपनी क्षमता के उच्च शिखर, पर पहुंचा देता है हमको,
करते जब उस समर्पण हम, बन रहे सहायक वह हमको ।
प्रभु सेवक बन सेवा करता, वह सच्चा धर्म निभाता है,
उसको करने कर्तव्य नहीं, बाकी कोई रह जाता है ।
सम्पूर्ण धर्म-कर्तव्यों को, तज, शरण एक मेरी गह ले,
मैं सर्वशक्ति, सर्वाधारी, तू मेरी शारणागति ले ले ।
तू शोक न कर चिंता तज दे, मेरे ऊपर निर्भर हो जा,
कर दूँगा पाप-मुक्त तुझको, तू मेरा आत्मरुप हो जा ।
श्लोक (६७)
अति गोपनीय यह ज्ञान परम, तपरहित पुरुष से यह न कहें
यह कहें न कभी अनिच्छुक को, यह नहीं अभक्त से कभी कहें ।
मुझसे जो द्वेष करे अर्जुन, उसको न सुनाएँ इसे कभी,
जो भक्तियोग में लगे हुए, वे ही सुनने के पात्र सही ।
गीता का यह उपदेश गुहृय, उसको न सुनाएँ जो अपात्र,
तप रहित रहे, जो भक्ति रहित, जो रहा अनिच्छुक वह कुपात्र।
मुझमें जो द्वेषदृष्टि रखता, करता हो जो निन्दा मेरी,
वह रहा अनधिकारी अर्जुन, वह सुने न यह गीता मेरी ।
जिसमें हो समझ समझने की, जो साधक रहे समर्थ रहे,
जो अनुशासित जो प्रेमपूर्ण, जिसमें सेवा का भाव रहे ।
वह इस गीता को समझेगा, समझेगा नहीं अपात्र इसे,
जो करता हो निन्दा मेरी, उसको न सुनाना कभी इसे । क्रमशः….