‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 256 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 256 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (५७)

हे अर्जुन अपने कर्म सभी, मुझको अनन्य हो अर्पण कर,

मेरे प्रति पूर्ण समर्पित हो, तू भक्ति योग का पालन कर ।

अविनन्तर मेरा ध्यान किए, अपने कर्तव्य निभाता चल,

हो पूर्ण परायण मेरे तू, जीवन को सफल बनाता चल ।

 

अपने सब कर्म समर्पित कर, मुझको भगवान समझ अर्जुन,

दृढ़ता पूर्वक मति मुझमें रख, मुझमें एकाग्र किए चल मन ।

मन से, संकल्प, चेतना से, जुड़कर, कर्तव्य किए जा तू,

इस भक्ति योग के पालन से, निज का कल्याण करेगा तू ।

 

अर्जुन तुम ऐसा यत्न करो, त्यागे मन अपनी चंचलता,

मुझमें एकाग्र चित्त होवे, मेरा ही सतत भजन करता ।

ऐसी अनन्य यह भक्ति साध, हो जाओ मुक्त अविद्या से,

अपने कर्तव्य करो पूरे, मुझको उर में धारण करके

 

होती न दूर तन से छाया, त्यों प्रकृति पुरुष का साथ रहा,

यह ज्ञान अविद्या दूर करे, यह कर्मो से सन्यास रहा ।

आत्मा में रहती लीन बुद्धि, मुझमें अपने को देखोगे,

कर्मो की जननी प्रकृति उसे, तुम नहीं आत्मवत लेखोगे ।

 

हो सिद्धि-असिद्धि कि सुख-दुख हो, हो हानि लाभ कुछ भी हो,

इच्छा से प्रभु की होता है, इसलिए न मन में विचलित हो ।

यह बुद्धि योग समभाव रखे, हे कौन्तेय, कर अवलम्बन,

तू ध्यान हटा सारे जग से, हो जा बस मेरे पारायण ।

 

सोते-जगते, खाते-पीते, चलते-फिरते तू भज मुझको,

मुझमें ही अपनी बुद्धि लगा, मन में धारण कर तू मुझको ।

सब कर्म मुझे ही अर्पित कर, मुझमें ही तेरा चित्त रहे,

तू अपना जो भी कर्म करे, वह कर्म न तेरा कर्म रहे । क्रमशः….