‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 242 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 242 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (३८)

इन्द्रिय विषयों का सुख सारा, उपभोग तृप्ति से जो मिलता,

होता है क्षणिक उसे पाने, फिर फिर मानव प्रवृत्त होता ।

पहिले अमृतवत मधुर लगे, परिणाम मगर विषतुल्य रहे,

ऐसा सुख राजस कहा गया, विषयों का सुख जो मनुज गहे।

 

संयोग जन्य इन्द्रिय का सुख, संयोग जन्य सुख विषयों का,

जो अमृत जैसा मधुर लगे, परिणाम दिखाए पर विष का ।

वह रहा राजसिक सुख अर्जुन, मन विषय-भोग में लिप्त रहे,

इसमें फंस गया न जन उबरे, वह सच्चे सुख से विमुख रहे ।

 

विषयों का सेवन करने से जिस सुख को पाता है मनुष्य,

उतना ही जीवन-सुख माने, आसक्ति बढ़ाता है मनुष्य ।

वह रहा राजसी सुख अर्जुन, पहिले वह अच्छा लगता है,

लेकिन परिणाम जहर जैसा, वह परिणाम मृत्यु का बनता है।

 

आसक्ति लिए फिरता अतृप्त, दुख पाता है ईर्ष्या करता,

बल वीर्य बुद्धि को नष्ट करे, दिन दिन वह पतन और बढ़ता ।

पाता न शांति, मति भ्रमित रहे, उसका सब सुख होता विलीन,

मृग तृष्णा में भूले-भटके, अपने को वह पाता न चीन्ह ।

 

सुख बुद्धि विषय में रम रहती, जागे विषयों की भोगेच्छा,

पापों में बढ़ती है प्रवृत्ति, हित अहित नहीं अपना दिखता ।

कितने ही कष्ट उठाता है, परलोक नहीं सधने पाता,

राजस सुख में पड़कर मनुष्य, पूँजी अपनी खोता जाता ।

 

राजस-सुख होता नित्य नहीं, यह क्षणिक रहा, यह भ्रमित करे,

इन्द्रिय-सुख को ही सुख माने, विषयों में नव आसक्ति भरे ।

झूठे सुख का यह जाल रहा, फेरे पर फेर लगवाता,

पल दो पल चलकर साथ-साथ, फिर ओझल दृग से हो जाता।

 

हो धर्मभाव का नाश जहाँ, इन्द्रिय का लाड़ दुलार रहा,

विषयों का सुख ही काम्य विषय, पापों का नित विस्तार रहा।

जीवों की दुर्गति का कारण, यह राजस-सुख बनता अर्जुन,

विष मीठा खाने में लेकिन, परिणाम रहा क्या दुसह मरण । क्रमशः….