रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’
श्लोक (४)
सात्विक जन की सात्विक श्रद्धा, वे देवों का करते पूजन,
अरु यक्ष-राक्षसों को पूजे, राजस जन का श्रद्धालु मन ।
तामस गुण की तामस श्रद्धा, वे भूत-प्रेत गण को भजते,
गुण -कर्म भेद आधार रहा, जन अलग-अलग श्रद्धा रखते ।
हे भारत, सभी मनुष्यों की, श्रद्धा अनुरुप रहे उनके,
हो जैसा अन्तःकरण पार्थ, वह श्रद्धा उसके तुल्य रखे ।
होता वह स्वयं उसी जैसा, उसका अपना होता स्वभाव,
गुण जैसा वह धारण करता, वैसा ही उसका रहे चाव ।
रे कालजयी रचनाओं में, प्रतिबिम्बित होते पद युगीन,
कुछ होते हैं सविशेष विषय, जो रेशे बन रहते महीन ।
श्रद्धा, भोजन, तप, दान, यज्ञ, सन्यास, त्याग जैसे प्रकरण,
युग में अपना महत्व रखते, जिनसे भावित रहता जीवन ।
श्रद्धा कोई विश्वास नहीं, यह मन का वह एकाग्र भाव,
धारण कर तय आदर्शों को, आत्मा पर जो डाले प्रभाव ।
मानवता पर आत्मा का यह, पड़ने वाला दबाव हितकर,
वह शक्ति प्राप्त मानवता को, जो ज्ञान दृष्टि देती सत्वर ।
आध्यात्मिक अभ्युत्थान करे, तल ऊँचा-ऊँचा सुलभ करे,
समवेत व्यवस्था जागृत हो, पाने श्रेयस्कर लक्ष्य बढ़े ।
आदर्श धर्म प्रस्तुत करता, श्रद्धानुसार होता पालन,
जिस भाव भजन होता प्रभु का, प्रभु वही रुप करता धारण ।
श्रद्धानुसार फल पाते हैं, करके उपासना भक्त लोग,
वे हैं कि रहा उनका अतीत, होते भविष्य की नींव लोग ।
हम जैसी करते इच्छायें, वैसी आत्मा बन जाती है,
निष्ठा शाश्वत जीवन रचती, आत्मा को दिव्य बनाती है।
देवों को पूजें सात्विक जन, यक्षों को राजस गुण वाले,
पूजें दैत्यों को वे मनुष्य, जो होते तामस गुणवाले ।
वे भूतों-प्रेतों को पूजें, यह रहा तमोगुण का प्रभाव,
जैसा गुण जिसका हो प्रधान, वैसा उसके मन का झुकाव ।
यह जीव जगत सत रज तम से, सारा का सारा बंटा हुआ,
जो भी श्रद्धा का भाव रहा, गुण का उस पर भी असर पड़ा।
जल जीवन दायक होता है, विषवल्ली के सँग विष बनता,
अदरक के सँग बनता तीखा, गन्ने के सँग मीठा बनता ।
बढ़ जाता अधिक तमोगुण तो, श्रद्धा तामस से भर जाए,
हो रहें एक काजल स्याही, अन्तर दोनों का मिट जाए ।
राजस प्राणी के अन्तस में, श्रद्धा हो जाती रजोगुणी,
वह करे सत्वगुण सम्पादित, जब प्राणी होता सतोगुणी ।
केवल श्रद्धा से भरा हुआ, सारा संचार, समझ इसको,
त्रिगुणों के जो आधीन रही, गुण बाँट रहे होते जिसको ।
पहिचान उसे, अन्तस उसका, अभिव्यक्त कथन में होता है,
फूलों से तरु जाना जाता, कर्मो के सुख-दुख ढोता है ।
फल विगत जन्म के कर्मो का, सुख-दुख का रुप करे धारण,
सुख-दुख का अनुभव अलग रहे, अन्तस की श्रद्धा के कारण।
श्रद्धा के तीनों रुपों के हैं चिन्ह अलग उनको जानो,
है गुण प्रधान श्रद्धा में क्या, श्रद्धा के गुण से पहिचानों ।
सात्विक श्रद्धा सम्पन्न जीव, ईश्वर को पाने यत्न करे,
राजसी, भोग को करे कर्म, तामसी अवांछित कृत्य करे ।
होते हैं केवल पाप राशि, जिनकी श्रद्धा हो तमोगुणी,
निर्दय कठोर होते हैं वे करनी करती वह रक्त सनी ।
अतएव त्याग तामसी श्रद्धा, सात्विक श्रद्धा स्वीकार करो,
त्योगो दोनों श्रद्धाओं को, सात्विक को अंगीकर करो ।
सात्विक श्रद्धा, सात्विक चिन्तन, सात्विक मनबुद्धि परायण हो,
है गुण प्रधान श्रद्धा में क्या, श्रद्धा हो गुण से पहिचानों । क्रमशः….