रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’
अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’
श्लोक (२४)
कितने ही क्रोधी मुख भगवन, सब महाकाल जैसे भीषण,
अति छोटा यह आकाश लगे, जल रही अग्नि जिनमें भीषण ।
आवेश उतरकर जिव्हा पर, लपलपा रहा, फूत्कार करे,
तन का न मोह मुझको भगवन, पर चेतन मेरा सहम रहे ।
हे विष्णो प्रभु सर्वान्त शेष, देदीप्यमान विग्रह भगवन,
नाना रुपों से युक्त रहा, भू से उठकर छू रहा गगन ।
तेजोमय मुख को फैलाये, दमकाता नेत्रों को विशाल,
भयभीत हृदय में धैर्य्य हीन, खो रहा शान्ति हे महाकाल ।
हो गया धैर्य्य विचलित मेरा, मन में न शान्ति बचने पाई,
भयग्रस्त हुआ अन्तस जिसका, क्या उसे चैन फिर मिल पाई ?
दाढ़ों के कारण अति कराल, मुख से ज्यों अग्नि प्रलय की हो,
क्या पता दिशाओं का लगता, जब दिशि-दिशि अग्नि धधकती हो।
श्लोक (२५)
मुझको न दिशा का ज्ञान रहा, सुख मेरा सारा सूख गया,
इस दिव्य रुप के दर्शन का, आनन्द हाथ से छूट गया।
देवेश शरण में हूँ तेरी, भगवन मेरा उद्धार करो,
हे जगन्निवास होओ प्रसन्न, इस दिव्य रुप को शीघ्र हरो ।
देवाधिदेव आश्रय जग के, हर मुख में ज्यों प्रज्वलित आग
धधका करती ज्यों अन्तहीन, आया करता जब प्रलयकाल ।
देखे मैंने विकराल दन्त, सुख को न प्राप्त हूँ मैं भगवन,
कर रहीं दिशायें सभी विकल, मुझ पर प्रसन्न हों हे भगवन ।
तक्षक वैसे ही जहरीला, लेकिन अतिरिक्त जहर पाए,
या काली रात अमावस की, भूतों के दल से भर जाए ।
आग्नेय अस्त्र अतिशय प्रचण्ड, फूटें प्रलयाग्नि बीच जैसे,
आवेश क्रोध का जिव्हा पर, उभराता आता प्रभु वैसे ।
दिख रहीं सर्वग्राही लपटें, मुख से जो तेरे निकल रहीं,
दाँतों को अधिक भयानक कर, वे ग्रसने चारों ओर बढ़ीं।
गुम दिशाबोध, मन विचलित है, प्रभु दया करो,करुणानिधान,
करुणा कर मुझे उबारो प्रभु, हे त्राहिमाम, हे त्राहिमाम ।
श्लोक (२६)
मुख विविध रहे देदीप्यमान, जिनके दिखते विकराल दन्त,
मैं देख रहा हूँ करुणाकर, धृतराष्ट्र सुतों का करुण अन्त ।
धृतराष्ट्र-पुत्र, सब राजागण, कौरव दल सारा शत्रु पक्ष,
प्रभु भीष्म, द्रोण अरु कर्ण सभी, इस काल रुप के बने भक्ष्य ।
कौरव कुल के ये सभी वीर, धृतराष्ट्र पुत्र, साथी नरेश,
सबके सब मुख में समा गए, जीवित न दीखता एक शेष ।
उनके शस्त्रों को, हय गज को, रथ को कर रहे ग्रास अपना,
रणक्षेत्र हुआ खाली-खाली, ज्यों टूट गया कोई सपना ।
था कौन सत्यवादी उनसा, था कौन दूसरा निपुण वीर,
वे भीष्म पितामह दिखे मुझे, प्रभुवर मुख में होते विलीन ।
गुरु द्रोण, सूर्य सुत कर्ण वीर, दीखे बरबस जाते मुख में,
प्रभु छूट रहा धीरज मेरा, व्याकुलता बढ़ती है मन में । क्रमशः…