
अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष-सन्यास योग
हे अर्जुन मोह ग्रसित होकर, तू भले उपेक्षा कर मेरी,
आज्ञा का पालन नहीं करे, मत करे कर्म मति का मेरी।
पर कर्म वही तुझको बरबस, हे पार्थ स्वयं करना होगा,
तेरा स्वभाव जैसा उसके, अनुसार तुझे चलना होगा।-60
हे अर्जुन हृदयों में सबके, बैठा होता अन्तर्यामी,
जग जीवों का जीवन सारा, वह चला रहा अन्तर्यामी।
वह देह यन्त्र का चालक बन, जग जीव मात्र को घुमा रहा,
माया की उसकी शक्ति रही जिससे वह सबको चला रहा।-61
हे अर्जुन उस परमेश्वर की, शरणागत हो तू सभी तरह,
उसकी ही कृपा प्राप्त कर तू, यश पायेगा तू सभी तरह।
पायेगा मन की शान्ति परम, तू परमधाम भी पायेगा,
जो दिव्य सनातन शाश्वत है, वह तुझे प्राप्त हो जायेगा।-62
यह ज्ञान रहा अति गोपनीय, मैंने जो तेरे लिये कहा,
यह गीता शास्त्र सुना तूने, तुझ पर इसका क्या असर रहा।
तू पूर्ण रूप से सोच-समझ, फिर अपना निर्णय कर अर्जुन,
जैसे इच्छा हो वैसा कर, वह कर जो कहता तेरा मन।-63
अति गोपनीय से भी बढ़कर, जो गोपनीय मम सार वचन,
तेरे प्रति फिर आवृत्ति करता, दे ध्यान उन्हें तू फिर से सुन।
तु मुझको है अतिशय प्यारा, इसलिये चाहता हित तेरा,
मेरा नित चिन्तन मनन रहे, कल्याण सदा होगा तेरा।-64 क्रमशः ….