
अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष-सन्यास योग
हे अर्जुन जिसको सिद्धि मिली, वह पुरुष कि जो रे सिद्ध हुआ,
जैसे पा गया ब्रह्म को वह, उस परम दशा को प्राप्त हुआ।
करता स्वरूप साक्षात्कार, पूर्णावस्था कैसे पाता ?
कैसे वह ब्रह्मभूत होता सुन उसको भी मैं बतलाता।-50
जो निर्मल मति संयुक्त हुआ, अपने मन को वश में करता,
सात्विक प्रवृत्तियों के द्वारा, अपने मन का निग्रह करता।
इन्द्रिय विषयों का त्याग करे, अरू राग द्वेष से मुक्त रहे,
करता स्वरूप साक्षात्कार, वह ब्रह्मभूत होकर विहरे।-51
एकान्तवास का जो सेवी, अरू रहता जो स्वल्पाहारी,
मन, वाणी, तन पर कर संयम, कर चुका चित जो अविकारी।
भगवत चिन्तन में जो निमग्न, मानो समाधि में नित रहता,
करता स्वरूप साक्षात्कार, वह ब्रह्मभूत होकर रहता।-52
वैराग्य वृत्ति धारण करता, तजता वह मिथ्या अहंकार,
मिथ्या बल वह मिथ्याभिमान, तज देता वह मन के विकार
वह काम तजे वह क्रोध तजे, वह तजे वस्तुओं का संग्रह
हो असंग वह शान्त रहे, वह ब्रह्मभूत प्रभु का विग्रह।-53
अनुभूति परात्पर की होती, जब ब्रह्मभूत मानव होता,
वह करता कोई शोक नहीं, इच्छाओं का विगलन होता।
जगता समभाव प्राणियों में, देहात्मबुद्धि सब गल जाती,
पाता वह मेरा भक्ति योग, यह दशा मनुज की जब आती।-54 क्रमशः ….