
सोलहवाँ अध्याय ..देवासुर-सम्पत्ति-विभाग योग (देवी और असुरी स्वभाव)
श्री भगवानुवाच :-
मैं असुर योनियों में उनको, हर बार गिराता हूँ अर्जुन,
वे मूढ विमुख मुझसे रहकर उद्वार न पाते जनम-जनम।
मुझको न प्राप्त करने पाते, यह योनी आसुरी पाकर वे,
गति बिगड गई तो अधिकाधिक, नीचे गिरते जाते हैं वे।-20
हैं द्वार नरक के तीन पार्थ, ये काम, क्रोध, अरू लोभ रहे,
आत्मा का करते अधःपतन, ये पातक शत्रु विशेष रहे।
इनसे बचते हैं बुद्धिमान, कर देते इनका पूर्ण त्याग,
इनसे संबंध न रखते वे, इनसे रखते वे विराग।-21
मानव जीवन के शत्रु प्रबल, ये काम, क्रोध अरू लोभ तीन,
इनके विकार से मुक्त पुरुष, होने पाता है आत्मलीन।
अनुरूप स्वंय के साधन कर, करता स्वरूप साक्षात्कार,
पा जाता परमधाम अर्जुन, हो जाता जो जन निर्विकार।-22
पर विधि विधान को त्याग, मनुज, बस करें कार्य इच्छानुसार,
आचारों का पालन न करें, पालन न करें धर्मोपचार।
संसिद्धि न वे पाने पायें होती न शुद्धि उनके मन की,
सुख शान्ति न उनको मिल पाती बिगडी ही रहती गति उनकी।-23
इसलिये स्वयं निर्धारित कर, करणीय रहा क्या अकरणीय,
शास्त्रों से इसका ज्ञान मिले, तज कर्म रहे जो निन्दनीय।
शास्त्रोक्त कर्म का पालन कर, पालन कर उसका विधि-विधान,
यह मार्ग मुक्ति का खुला पार्थ, जग जंजालों का यह निदान।-24
॥ इति षोडषम अध्याय ॥