
सोलहवाँ अध्याय ..देवासुर-सम्पत्ति-विभाग योग (देवी और असुरी स्वभाव)
श्री भगवानुवाच :-
दैवी गुण सम्पादित करते, वे मोक्ष मार्ग पा जाते हैं,
पर पार्थ आसुरी गुण वाले, बन्धन से उबर न पाते हैं।
तू शोक न कर व्याकुल मत हो, दैवी गुण ये तूने पाये,
ये पूर्व जन्म के कर्मों से, जब जन्मा संग तेरे आये।-5
दैवी गुण लेकर जन्में कुछ, कुछ का आसुरी स्वभाव रहा,
कुछ शास्त्र विहित व्यवहार करे, कुछ का बस स्वेच्छाचार रहा।
दैवी गुण तुझको सुना चुका, आसुरी वृत्ति का सुन विवरण,
दो रहीं कोटियाँ जीवों की, जग जिनमें बंटा हुआ अर्जुन।-6
वे रहे धर्म से विमुख दूर वे नहीं अधर्म से अरूचि रखे
मन मलिन,मलिन मन वे लेकर कुविचारों में हो सदा बसे
वे सत्यविमुख स्वेच्छाचारी उनको न शास्त्र का ज्ञान रहा
आचारहीन विपरित चले उनको न मान्य विधान रहा।-7
वे बतलाते जग को मिथ्या कहते जग आश्रय हीन रहा
ईश्वर होता ही नहीं कही, जग पुंज अविद्या का ठहरा।
इसका न कार्य न कारण है उद्भूत प्रकृति से जग सारा
परिणाम काम का है केवल, समझा जाता उनके द्वारा।-8
अपने मत का कर अवलम्बन, कर चुके नष्ट वे आत्मज्ञान
मति तुच्छ लिये दुर्बुद्धि असुर, करते विधान विपरित काम।
वे सबका बहुत अहित करते, उनका न मर्म, उनका न धर्म,
जग का विनाश करते उद्यत, करते वे नास्तिक क्रूर कर्म।-9 क्रमशः ….