
पन्द्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम योग (परम पुरुष का योग)
जो मोह तजे जो तजे अहम, जो असत संग से मुक्त रहे,
निवृत्त कामनाओं से जो, अध्यात्म नित्य का मनन करे।
सुख-दुख द्वन्द्वों से विगत हुआ, जो ज्ञानी शरणागत होता,
पा जाता शाश्वत परम-धाम, जीवन उसका सार्थक होता।-5
मेरा वह धाम स्व-दीप्त रहा, कोई न उसे भासित करता,
उसको न प्रकाशित सूर्य करे, भासित न चन्द्रमा कर सकता।
उसको न प्रकाशित अग्नि करे, वह रहा प्रकाशित स्वयं धाम,
पहुँचा जो जीव न लौटा फिर, ऐसा है मेरा परम धाम।-6
मेरा ही शाश्वत भिन्न अंश, यह जीव जगत में बद्ध रहा,
यह भिन्न अंश ऐसा जिसमें, आंशिक गुण जीवों का उभरा
उसको स्वतंत्रता प्राप्त हुई, उपयोग करे या दुरूपयोग,
मन और इन्द्रियों से उसका, चलता रहता संघर्ष घोर।-7
ज्यों गन्धवाह ले उड़े गन्ध, फूलों से फूल वहीं छूटे,
त्यों जीव देह का स्वामी जो, उड़ जाता देह वही छूटे।
पर सूक्ष्म स्थल इन्द्रियों को, कर ग्रहण साथ में ले जाता,
तन एक त्याग प्राकृत जग का, वह नई देह में बस जाता।-8
यह सूक्ष्म देह धारा करता, नूतन शरीर के संस्कार,
हो पुनर्जन्म जब देह मिले, संघर्ष कि ‘कर्षण’ हो कराल ।
तब देह दूसरी धारण कर, इन्द्रिय विषयों का भोग करे,
यह जीव पुराने नये बीच, संस्कारों से संघर्ष करे।-9 क्रमश :…