श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 43वी कड़ी ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 43वी कड़ी ..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           चौथा अध्याय  :- ज्ञान-कर्म-सन्यास योग                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     अति गहन कर्म का ज्ञान इसे, गहराई से जाना जाये,क्या कर्म, विकर्म अकर्म रहे, भेदो को पहिचाना जाये।

क्या रहा कर्म उसकी गति क्या, कैसा विकर्म का रूप रहा,

क्या क्या अकर्म के तत्व रहे, आवश्यक क्यों यह कर्म रहा।-17

क्षेपक :-

कर्मों का मर्म समझने को, पहिले अपने को हम जाने,

ईश्वर से क्या सम्बन्ध रहा इसको पहले हम पहिचाने,

प्रत्येक जीव है नित्यदास, प्रभु का जिसने यह जान लिया,

कर्तव्य कर्म उसने अपना, पहिचान लिया, निर्धार लिया।-17.1

 

इस मूल भावना का विरोध, करने वाले निष्कर्ष सभी,

या फल परिणाम विमुख उससे, प्रतिरोधक रहे विकर्म सभी।

फल की न कामना जिनमें हो, वे कर्म अकर्म रहे सारे

“हूँ नित्य दास प्रभु का ज्ञानी”, यह मूल धारणा मन धारे।-17.2

 

जिसको अकर्म में कर्म दिखे, अरू जिसको कर्म अकर्म हुआ,

वह पुरुषों में है बुद्धिमान, वह कर्म फलों से मुक्त रहा।

प्रभु की प्रसन्नता हेतु सदा, कृष्णार्पित उसके कर्म रहे,

सब कर्मों में प्रवृत्त होकर भी कर्म पाश से नहीं बंधे।-18      क्रमशः …