श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 42वी कड़ी ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 42वी कड़ी ..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           चौथा अध्याय  :- ज्ञान-कर्म-सन्यास योग                                                                                                                                             
त्रिगुणात्मक रहे प्रकृति के गुण, कर्मों के साथ विधान बना,

गुण कर्म विभागों के द्वारा वर्णाश्रम धर्म वितान तना।

कर्ता मैं रहा व्यवस्था का, मैंने ही वर्ण व्यवस्था दी,

पर जान अकर्ता मुझे पार्थ, मैं हूँ असंग में अविनाशी।-13

 

मुझको न बाँधते कर्म कभी, मुझमें न कर्मफल की इच्छा,

जो कर्म किया जाता मुझसे, वह भावित नहीं मुझे करता।

मुझसे सम्बन्धित ज्ञात जिसे, यह सत्य न बन्धन में पड़ता,

निर्लिप्त कर्मफल में रहकर वह मुक्तिलाभ अर्जित करता।-14

 

यह तत्व जानकार भली भाँति, प्राचीनकाल में ज्ञानी जन,

सबके सब जीवन-मुक्त हुये, करके स्वधर्म का अवलम्बन ।

अतएव उन्हीं के जैसा तू, इस बुद्धियोग का पालन कर,

कर्तव्य सुनिश्चित कर अपना, पूरा कर उसको, आगे बढ़।-15

 

किसको कहते हैं कर्म किसे कहते अकर्म यह भेद ज्ञान,

निर्णय करने में भ्रमित रहे, जग जीवन साधक बुद्धिमान।

इसलिये तुझे समझाऊँगा, कहलाता है क्या कर्म तत्व,

तू जान जिसे हो जायेगा, अपने पापो से पूर्ण मुक्त।-16  क्रमशः…