श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 38वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 38वी कड़ी..                                                                                                                                                                                                   
तीसरा अध्याय :  – कर्मयोग                                                                                                                                                                
यह काम इन्द्रियों में बसता, मन में भी काम निवास करे,

यह बसे बुद्धि में मानव की मनुबुद्धि इन्द्रियाँ साथ करे।

इनके द्वारा जीवात्मा के, वास्तविक ज्ञान को ढंक लेता,

छा जाता है फिर तन मन पर, उसकों यों मोहित कर लेता।-40

 

हे भरत श्रेष्ठ सबसे पहिले, वश में तू सभी इन्द्रियां कर,

जो नाश ज्ञान का करता है, उस काम शत्रु को प्रथम पकड़।

विज्ञान नाश करने वाला है, काम महापापी अर्जुन,

संहार काम का कर पहिले, दृढ़ निश्चय कर तू, अपने मन।-41

 

इन्द्रियां देह से श्रेष्ठ रहीं, मन श्रेष्ठ इन्दियों से होता,

होती है श्रेष्ठ बुद्धि मन से, अरू श्रेष्ठ बुद्धि, से ‘वह’ होता।

‘वह’ परे बुद्धि आत्मा है, आत्मा जो कहलाती “महान”,

इन्द्रिय मन बुद्धि जुडे उससे, आत्मा में हो जब निष्ठ प्राण।-42

 

हे महाबाहू तू इस प्रकार, या अपना दिव्य स्वरूप प्रथम

, मन, बुद्धि, इन्द्रियों के अतीत, जो आत्म-शक्ति से युक्त परम,

मन को वश में कर ले मति से, सन्नद्ध युद्ध को शक्ति धार,

होता न शान्त दुर्जेय शत्रु, यह कामरूप तू इसे मार।-43

॥ इति तृतीय अध्याय ॥