श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 33वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 33वी कड़ी..                                                                                                                                                                                                   
तीसरा अध्याय :  – कर्मयोग                                                                                                                                                                
अर्जुन उवाच –                                                                                                                                                                                      
क्षण भर के लिये न रह सकता, बिन कर्म किये कोई भी जन,
यह पकृति रही प्राकृत गुण का, होता रहता नित आवर्तन,
सब मनुज प्रकृति के बाध्य हुए, प्रेरित गुण से नित कर्म करे,
उन्मुख हो कर्म स्वधर्म हेतु, तब ही वे बन्धन से उबरे ।-5

 

मन में जिनके होता रहता, इन्द्रिय विषयों का ही चिन्तन,

पर हठ पूर्वक करते रहते, जो जन कर्मेन्द्रियों का दमन।

वे स्वयं भ्रमित भ्रम फैलाते, यह उनका मिथ्याचार रहा,

वे धूर्त रूप कपटी उनका, व्यवहार निपट पाखण्ड का रहा।-6

 

पर जो मनुष्य मन के द्वारा, अधिकार इन्दियों पर करते,

धारण कर अनासक्ति मन में, जो अपने सहज कर्म करते।

वे श्रेष्ठ रहे उन लोगो से, कृत्रिम जिनकी आध्यात्मिकता,

जो बने प्रबंचक कर्मो से, जिनका दल जनता को ठगता।-7

 

इसलिए कर्म कर हे अर्जुन, वह कर्म जो करणीय रहा,

यात्रा शरीर की कर्म बिना पूरी कर पाता क्या कोई ?

निष्क्रय हो जाना उचित नहीं कर्तव्य कर्म ही श्रेष्ठ रहा

जो कर्महीन सौभाग्य नियति, रहती है उसको बस सोई।-8

 

हे अर्जुन यज्ञरूप विष्णु, प्रीत्यर्थ कर्म उनके प्रतिकर,

वे कर्म समझ आवश्यक तू, उनकी प्रसन्नता को तू वर।

अन्याय कर्म बन्धनकारक, उनसे मन दूर हटा ले तू,

हो अनासक्त निर्बन्ध पार्थ, समता का भाव जगा ले तू।-9    क्रमश :…