रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।अध्याय अठारह – ‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।
श्लोक (७)
जो शास्त्र विहित कर्तव्य रहे, उनका न कभी भी त्याग करे,
वे नियत कर्म उनका पालन, हो सहज भाव सम्पन्न करे।
परित्याग न उन क्रियाओं का, रे कभी जीव को उचित रहा,
जो त्याग मोहवश किया गया, वह त्याग ‘तामसी’त्याग रहा।
जो काम्य कर्म, जो हैं निषिद्ध, उनके स्वरुप का त्याग सही,
पर नियत कर्म कर्तव्य रहे, उनका न त्याग रे उचित कभी ।
जो मोह ग्रसित होकर अर्जुन, करणीय कर्म का त्याग करे,
वह त्याग तामसी त्याग रहा, वह त्याग न मुक्ति प्रदान करे ।
श्लोक (८)
दुखमय है कार्य समझ ऐसा, जो मनुज कर्म का त्याग करे,
या क्लेश देह को देता है, यह सोच मनुज जो कर्म तजे ।
वह त्याग ‘राजसी’ रहा पार्थ, उसको न त्याग का फल मिलता,
दुखमय फल रहता राजस का, जो उस त्यागी के संग फलता ।
इसलिए करे कर्तव्य त्याग, वह उसे कष्टकारी लगता,
या दुख पहुंचाता वह उसको, या जिससे उसको भय जगता ।
करना न परिश्रम चाहे वह, इन्द्रिय सुख को वह त्याग करे,
वह रहा राजसी त्याग पार्थ, वह त्याग न उसका उचित रहे।
यह नाम मात्र का त्याग रहा, यह त्याग नहीं सच्चा अर्जुन,
तन-मन की है आसक्ति जहाँ, वह नहीं रही हितकर अर्जुन ।
सुख-सुविधा की इच्छा लेकर, यह त्याग राजसी त्याग रहा,
इसमें सुख भोग प्रधान रहा, इसमें न त्याग का भाव जगा।
अधिकार जानता है अपना, कर्तव्य उसे भी पहिचाने,
पर कर्म कष्ट कारक लगते, इसलिए कर्म को वह त्यागे ।
ऐश्वर्य आज जो प्राप्त हुआ, उसका ही भोग न क्यों कर लूँ,
क्यों करूँ परिश्रम कष्ट सहूँ, क्यों नहीं स्वप्न का लोक तजूँ ।
फल जो उधार का, जो अदृश्य, क्यों उसके लिए सहूँ पीड़ा
क्यों दूँ शरीर को कष्ट व्यर्थ, क्यों त्याग न दूँ पथ पथरीला
क्यों कड़वी नीम करूँ सेवन, इसका सेवन मैं त्याग रहा
इनका बोझा ढोना दुष्कर, मैं कंद मूल फल त्याग रहा ।
यह त्याग नहीं सार्थक होता, यह त्याग राजसी सुख भोगी,
इस तरह त्याग करने वाला, बन पाता नहीं कर्मयोगी ।
गिर जाए अग्नि कुण्ड में धृत, वह होम नहीं बन जाता है,
जो त्याग भावना से विहीन, वह त्याग व्यर्थ हो जाता है। क्रमश ….