‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 57

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 57 वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (१)

बोले भगवान, सुनो अर्जुन, सन्यासी, योगी है समान,

जो अग्निमात्र का त्याग करे, अरु बचा रखे देहाभिमान ।

या करे त्याग क्रियाओं का, पर कलुष न मन का दूर करे,

वह रहा न सच्चा सन्यासी, वह सच्चा योगी नहीं रहे ।

 

इच्छा न कर्मफल की रखता,पर करता अपने विहित कर्म,

वह सन्यासी है हे अर्जुन, समझा है उसने कर्म-मर्म ।

जो करे अग्नि का त्याग और धार्मिक कृत्यों से विरत रहे,

जब त्याग आन्तरिक हुआ नही, तो क्या उसका सन्यास सधे?

 

ऐसे ही जो निष्काम कर्म करता, वह योगी सन्यासी,

रख त्याग भाव को सजग, कर्म करता रहता है वह न्यासी ।

पर रही कामना शेष जहाँ, सब त्याग व्यर्थ क्रियाओं का

मन के भीतर यदि कलुष रहा, योगी का योग कहाँ सधता?

 

कर दिया अग्नि का त्याग मात्र, इतने से हुआ न सन्यासी,

या केवल क्रियाएँ तजकर, योगी न हुआ सच्चा न्यासी ।

जो कर्मफलों के आश्रय का, कर त्याग कर्म करता अपने,

वह सन्यासी है, वह योगी, जो कर्मयोग साधे अपने ।

 

फल की न कामना जिसे रही, अरु जो करता कर्तव्य रहा,

हे पार्थ वही सच्चा योगी, सच्चा सन्यासी वही रहा ।

उसने न निरग्नि का व्रत धारा, या लौकिक कर्मों को त्यागा,

या विमुख हुआ कर्तव्यों से, त्यागी बन निर्जन में भागा

 

जो कर्म करे पर फल की इच्छा नहीं रखे वह है योगी,

जो कर्म करे तज अहंकार, सन्यासी वह भी है योगी ।

पृथ्वी जिस तरह उद्भिजों को, पैदा करके सन्यस्त रहे,

पेड़ों में फल उत्पन्न हुए, वह उनकी इच्छा नहीं करे ।

श्लोक (२)

सन्यास जिसे कहते हैं हम, वह योग, योग की सिद्धि रही,

‘परतत्त्व युक्त मन हो जाना’ उसकी इस भाँति प्रसिद्धि रही ।

इन्द्रियाँ प्रबल होतीं अर्जुन, मन में पैदा करती इच्छा,

भोगेच्छा का बिन त्याग किए, कोई न कभी योगी बनता ।

 

जिसको सन्यास कहा जाता, तू उसको योग जान अर्जुन,

वह पुरुष न योगी बन पाता, संकल्प विरत यदि रहा न मन ।

जिस तरह एक ही व्यक्ति अलग, दो नामों से सम्बोधित हो,

या गन्तव्य मार्ग एक, दो राहें जाती हों जिसको ।

श्लोक (३)

अष्टांग योग के साधक के, प्रारम्भिक साधन कर्म बने,

कर लिया सिद्ध सोपान चढ़े तो साधक ‘योगारूढ’ बने ।

कर्मों का त्याग हेतु बनता वे उठते जाते हैं ऊपर,

परमार्थ शुद्ध निःश्रेयस की, अनुभूति प्राप्त करते भूपर ।

 

जिस मुनि की चाह रही, वह अपना करने पाए योग सिद्ध,

बनता है साधन कर्म उसे, सिद्धावस्था वह करे सिद्ध ।

तब भी वह विश्व चेतना में, बसकर नित कर्म किया करता,

पा जाता ‘आत्म-नियन्त्रण’ तब वह ‘शम’ या शान्ति प्राप्त करता ।

होना है योगारूढ़ जिसे, अरु वरण शिखर करना उसका,

तो उसे कर्म-सोपानों से, धीरे धीरे चढ़ना पड़ता ।

यम-नियमों की आधारभूमि, फिर योगासन की पगडण्डी,

फिर प्राणायाम टेकरी से, आगे मिलती घाटी सकरी ।

 

यह प्रत्याहार रूप घाटी, सधते न बुद्धि के पाँव,

यहाँ, फिसलन, टूटे-फूटे कौने, गहरे गव्हर भय भरें यहाँ ।

टिक पाते नहीं पैर सबके योगी दृढ़ यहाँ न रह पाते,

सध पाते वे, वैराग्य भाव का, जो निर्जन पथ अपनाते ।

 

अभ्यास निरन्तर साधन से, फिर आगे बढने पाते हैं,

बैठे वे वायु-तुरग पर फिर, ऊपर ऊपर चढ़ जाते हैं ।

रखते हैं चित्त शान्त अपना पा जाते अन्त धारणा का,

हो जाती तृप्ति लालसा की, आगे फिर मार्ग नहीं जाता ।

 

रुक जाता कदम न सुधि रहती, पिछला सब विस्मृत होता है,

साधन जा मिला साध्य से जब, साधक समाधि में होता है।

इस तरह हुआ परिपूर्ण पुरुष, जो योगारूढ हुआ अर्जुन,

सुन आगे अब बतलाता हूँ, होते हैं क्या उसके लक्षण ? क्रमशः…