किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 52 वी कड़ी ..पञ्चमोऽध्यायः – ‘कर्म-सन्यास योग’
श्लोक (१)
अर्जुन उवाच :-
हे कृष्ण, आपने सांख्य योग अरु कर्म योग को समझाया,
दोनों की बहुत प्रशंसा की, दोनों का पालन बतलाया ।
सन्यास कर्म का श्रेष्ठ रहा, फिर कर्म करो यह क्यों कहते ?
मुझको क्या करना उचित रहा, कहिए भगवन निश्चय करके ।
हे कृष्ण, आपकी बातों से मन में मेरे द्विविधा जागी,
क्यों करना कर्म उसे होता, जब मुक्ति प्राप्त करता त्यागी ।
दोनों में उत्तम कौन मार्ग, जो श्रेयस्कर उसको कहिए,
मति मन्द रहा मैं हे भगवन, मेरे मन की द्विविधा हरिए ।
सुनकर अर्जुन की ये बातें आनन्दित होते यदुनन्दन,
अपने क्या सबके लिए, प्रश्न यह पूछ रहा मुझसे अर्जुन ।
श्लोक (२)
भगवान उवाच :-
बोले श्रीकृष्ण सुनो अर्जुन, कल्याण परक हैं ये दोनों,
हो कर्म त्याग या कर्म योग हैं मुक्ति प्रदायक ये दोनों ।
लेकिन साधन में कर्मयोग, सन्यास मार्ग से सुगम रहा,
इसलिए यही है श्रेष्ठ, कर्म तुम करो इसी से तुम्हें कहा ।
जिस तरह सुगम होती नौका सरिता को पार कराने में,
जिस प्रयोग का मार्ग सुगम, यह सम्यक है अपनाने में ।
ज्ञानी कहते सन्यास जिसे, अनुशासित कर्म समझ, उसको,
जो त्याग स्वार्थ का कर न सके, साध सके न योग कोई उसको।
है योग नियन्त्रण अपने पर अपने ऊपर अधिकार योग,
दोनों की फलश्रुति है समान, हो कर्म या कि सन्यास योग ।
हे पार्थ, रहे सन्यास कर्म या हो निस्वार्थ कर्म करना,
आत्मा की मुक्ति हेतु होती रे इन दोनों की आचरणा ।
लेकिन निस्वार्थ कर्म करना है कर्म त्याग से अधिक सुगम,
इसलिए श्रेष्ठ है कर्मयोग, इस सांख्य योग से सुन अर्जुन ।
रखना होता है सजग ज्ञान, ज्ञानी को अपने चिन्तन पर,
लेकिन योगी निश्चय पूर्वक, करता है अपने कर्म निडर ।
ये मूल भाव में दोनों ही, हैं एक, भिन्नता है विधि की,
है शुद्धि विचारों की कोई, है कोई निष्ठा कर्मों की ।
श्लोक (३)
करता जो कर्म, कर्म योगी वह रहा नित्य सन्यासी ही,
वह नहीं किसी से द्वेष करे, वह करे न कुछ आकांक्षा ही ।
वह राग द्वेष से मुक्त रहे, ईश्वर को करे कर्म अर्पण,
योगी वह सन्यासी ही है, उसको न कर्म बनते बन्धन
श्लोक (४)
फल इन योगों के पृथक रहे, यह कथन रहा अज्ञानी का,
जो पंडित जन, न समर्थन उनका, ऐसी बातों को मिलता ।
हो सांख्य योग या कर्मयोग, हो जिसका भी सम्यक पालन,
दोनों का फल, परमात्मा को पाता वह जो करता धारण ।
श्लोक (५)
मिलता है परमधाम उनको, जो सांख्य योग को अपनाते,
जो कर्मयोग को अपनाते, वे भी हैं परमधाम पाते ।
जो पुरुष देखता है,समान फल मिलता, दोनों योगों से,
वह सही देखता है, समझो हट गये दोष उसके दृग से ।
श्लोक (६)
मन बुद्धि देह के कर्मों में, कर्तापन का जो त्याग करे,
हे अर्जुन वह सन्यास रहा, जो कर्मयोग बिन नहीं सधे ।
मुनि जन धारण कर कर्मयोग, भगवत्स्वरूप का मनन करें,
परब्रह्म पूर्ण परमात्मा को, वे अल्पावधि में प्राप्त करें ।
श्लोक (७)
जिसका मन है अपने वश में, वश में जिसके इन्द्रियाँ रहीं,
जिसका अन्तस विशुद्ध रहता, जिसमें छवि आत्मा की उभरी।
जो प्राणिमात्र में आत्म रूप, परमात्मा के करता दर्शन,
वह करके कर्म अलिप्त रहा, वह मुक्त कर्मयोगी अर्जुन । क्रमशः…