‘गीता ज्ञान प्रभा’ धारावाहिक .. 13

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ 

ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखलागीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 13 वी कड़ी ..

                                        द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

                         ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (३) 

इसलिए पार्थ तू त्याग नपुन्सकता जो तूने दिखलाई,

यह नहीं कभी भी उचित कि तेरे द्वारा जाए अपनाई ।

यह तुच्छ हृदय की दुर्बलता तू त्याग इसे मतकर विलम्ब,

तू शूरवीर, रण भीरु नहीं, उठ युद्ध हेतु कर नाम धन्य ।

 

तू छोड़ शोक का भाव न कर दुख रिश्ते-नातेदारों का,

धारण कर धीरज शमन किए चल तू अपने व्यवहारों का।

जो कुछ अब तक तूने पाया कर नष्ट न अपने उस यश को,

क्यों भ्रमित हुआ जो देख नहीं पाता है तू अपने हित को

 

क्या आज बन गये संबंधी ये कौरव पहिले कभी न थे?

या आज ज्ञात यह बात हुई जिसको तुम पहिले भूले थे ?

या इनसे पहिचान तुम्हारी अब तक कोई नहीं रही,

फिर ऐसे हो व्यर्थ दुखी क्यों, जब अवगत है सत्य सभी ?

 

इसके पहिले नहीं युद्ध का क्या कोई अवसर आया ?

या अपूर्व या सहसा कोई यह अलक्ष्य दुर्दिन आया ?

क्या न कलह के नित्य खेल से अब तक रहे अपरिचित तुम ?

फिर यह क्या हो गया कि इतने व्याकुल हो आये हो तुम ?

 

बहुत बुरा यह काम हुआ, तुम फँसे मोह के फन्दे में,

केवल घाटा ही घाटा है भय-भ्रम के इस धन्धे में ।

कीर्ति तुम्हारी जायेगी ही, हाथ न कुछ भी आयेगा,

लोक और परलोक न कोई कभी सुधरने पायेगा ।

 

सिद्ध नहीं होगी हितकारी, मन की आई दुर्बलता,

अध:पतन होता क्षत्रिय का, रण में जो दुर्बल बनता ।

अर्जुन को समझाने का कर चले यत्न यों यदुनन्दन,

मनोभाव अपने दर्शाने लगा तभी उनको अर्जुन ।

श्लोक (४)

हे देव नहीं आवश्यकता है इतना सब कुछ कहने की,

मैं चाह रहा हूँ कुछ कहना अनुमति दें मुझको कहने की।

इस युद्ध समस्या के बाबत, भगवन ही स्वयं विचार करें,

यह युद्ध न होगा, पाप बड़ा होगा, यदि इसमें हम उतरें ।

 

इसमें प्रवृत्त होने पर मुझको हानि दीखती बहुत बड़ी,

जो पूज्य रहे उनसे लड़ने की होगी सम्मुख विषम घड़ी ।

ऐसा प्रसंग दुष्कर भीषण केशव मैं निभा न पाऊँगा,

क्या भीष्म पितामह पर आचार्य द्रोण पर वाण चलाऊँगा ?

 

जिनकी सेवा करना, जिनको सन्तोष दिलाना धर्म रहा,

उन पूज्य ‘जनों का करना क्या सन्हार न होगा पाप बड़ा ?

ये वन्दनीय पूजा करने के योग्य, प्रणाम जिन्हें करता,

वह महापातकी होगा जो इन पर प्रहार शर से करता ।

 

ये पूज्य रहे, कुल श्रेष्ठ रहे मन अतिशय व्याकुल मधुसूदन,

क्या भाव शत्रुता का इनके प्रति, जग सकता हे अरिसूदन ?

इससे तो अच्छा यह होगा, हम स्वयं प्राण तज दें अपने,

जिनकी छाया में पले-बढ़े, उन पर क्या शर छोड़ें अपने ?

 

उपकृत हूँ अपने गोत्रज से, कुलगुरु से हूँ उपकृत भारी,

आचार्य द्रोण का शिष्य धनुर्धर अर्जुन रहा न अपकारी ।

पाए वरदान विपुल जिसने, पाकर जिनका आशीर्वाद,

लड़ना तो दूर रहा उनसे, क्या कर सकता है वह विवाद?

 

हे कृष्ण नहीं भस्मासुर जैसा मैं कृतघ्न बन सकता हूँ,

मैं भीष्म द्रोण से नहीं, नहीं मैं नहीं कभी लड़ सकता हूँ।

जिनकी दी हुई धनुर्विद्या, उन पर ही उसे प्रयुक्त करूँ,

इससे बढ़कर पातक न दूसरा, हो सकता मैं यह समझँ ।

श्लोक (५)

सागर होता गंभीर किन्तु तल उसका सदा विक्षुब्ध रहे,

लेकिन भगवन् आचार्य शान्त गम्भीर क्षोभ से रहे परे

आकाश अनन्त रहा पर वह भी नापे से नप जाता है,

नहीं थाह पर गहरा अन्त:करण द्रोण का, में आता है।

 

शायद अमृत में भी खटास आ जाए या हो ध्वस्त बज्र,

लेकिन प्रयास करके भी कोई कर न सकेगा उन्हें उग्र ।

माता करती है स्नेह सही पर दया रुप आचार्य रहे,

पाती उदगम हो दया जहाँ वे करुणा के आगार रहे ।

 

वे खान समस्त गुणों की हैं, विद्या के हैं असीम सागर,

हम सबके लिए असीम कृपा से, भर देते खाली गागर ।

उनसे करना युद्ध, कृष्ण क्या कोई कभी सोच सकता,

इस कारण बढ़ रही व्यग्रता, दूनी होती विव्हलता ।

 

इन्हें मारकर मिले राज सुख, वह मुझको स्वीकार नहीं,

और श्रेष्ठ उससे भी कोई सुख हो, उसकी चाह नहीं ।

इस सबसे अच्छा भिक्षाटन या एकान्तवास वन का,

शस्त्र उठाने की, न कहें प्रभु, यह मेरा अन्तस कँपता ।

 

नई धार के लगे वाण से, मर्मस्थल को बेध चलूँ,

और रक्त से सने राज सुख का, मैं फिर उपभोग करूँ।

कैसे होगा मुझसे, इन रंजित सुख भोगों का सेवन ?

इसीलिए तैयार युद्ध के लिए, नहीं होता यह मन ।

 

भगवन मेरी इन बातों पर, करिए विचार मैं चाह रहा,

राजन, अर्जुन का तर्क कृष्ण को नही तनिक भी उचित लगा ।

मन में भय पाले अर्जुन ने, फिर कृष्णचन्द्र से यह पूछा,

कुछ ध्यान नहीं दे रहे आप, क्या बातों में न सार दीखा ? श्लोक (६) क्रमशः ..