क्या छिंदवाड़ा की बंद आँखें अब खुलेंगी ?

“जब गरीब मरता है, तब अफसरों की नींद खुलती है — मगर कुछ देर के लिए ही, फिर वही ढाक के तीन पात !”

✍️ राकेश प्रजापति 

छिंदवाड़ा के ज़हरीले कफ सिरप ने 22 मासूम जिंदगियाँ निगल लीं और एक बार फिर यह साबित कर दिया कि हमारे देश का स्वास्थ्य तंत्र ‘सेवा’ नहीं, ‘सिस्टम’ के नाम पर चलने वाला धंधा बन चुका है। यह सिर्फ एक हादसा नहीं — यह उस सड़ी-गली व्यवस्था का पोस्टमार्टम है जहाँ जिम्मेदारी का कोई चेहरा नहीं, बस कुर्सियाँ हैं जो रिश्वत के वजन पर झुक जाती हैं।

लापरवाही, भ्रष्टाचार और बेइमानी की यह तिकड़ी अब महामारी का रूप ले चुकी है। कोविड ने हमारी पोल खोली थी, लेकिन हम फिर उसी पुराने रास्ते पर लौट आए — आदेश, जांच, तबादला और फिर खामोशी।

मध्य प्रदेश, जो व्यापमं और नर्सिंग कॉलेज घोटाले जैसे जख्म झेल चुका है, अब छिंदवाड़ा की त्रासदी से भी लहूलुहान है। सवाल यह है कि जब गुनहगार अफसर और नेता खुलेआम घूम रहे हैं, तो क्या बुलडोज़र सिर्फ गरीब की झोपड़ी के लिए बने हैं?

अब यह भी स्पष्ट है कि भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था की सड़ांध भरी गलियों से निकल भागने की व्यवस्था खुद इस तंत्र ने बना रखी है।
यह ऐसा सिस्टम है जहाँ जिम्मेदार अफसरों, कर्मचारियों और राजनेताओं को भ्रष्टाचार की गंगोत्री से “पैसों की नाव” पर पार करा दिया जाता है।
सरकार में बैठे नेता और वातानुकूलित कमरों में जमे अफसर आपातकालीन हालात से बचने के बहाने अकूत संपत्ति कमाने की नई-नई तरकीबें ईजाद कर रहे हैं।

इस सड़ांध भरी व्यवस्था का सबसे घिनौना पहलू यह है कि यहाँ जवाबदेही तय ही नहीं की जाती। यही वह जड़ है जहाँ से पूरा सिस्टम सड़ता है।
लोकतंत्र में जनता ने जिन हाथों में ताकत दी थी, वही अब जनता के ज़ख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं।
सवालों के जवाब देने के बजाय, ये नेता और अधिकारी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की झाड़ियाँ लगा देते हैं, और असली मुद्दा अंधभक्तों की भीड़ में गुम हो जाता है।

इन अंधभक्तों की भी एक खास भूमिका है — वे हर बार असल मुद्दे से जनता का ध्यान भटकाकर अपने “आकाओं” की ढाल बन जाते हैं।
लेकिन उन्हें भी सोचना होगा —
अगर कल यही भ्रष्ट व्यवस्था तुम्हारे घर तक पहुँची तो? अगर तुम्हारे बच्चे उस लापरवाही की भेंट चढ़े, जिसे तुम आज बचा रहे हो, तो तब कौन जिम्मेदार होगा?

सच्चाई यह है कि जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी, तब तक सुधार की कोई उम्मीद नहीं।
अब वक्त आ गया है कि जनता राजनेताओं, अफसरों और नीति-नियंताओं से हिसाब मांगे
परिवर्तन तभी आएगा जब जनता मौन नहीं, आवाज बनेगी — जब सवालों से डरने के बजाय उन्हें पूछने की हिम्मत दिखाएगी।

छिंदवाड़ा की इन मासूम मौतों ने हमें आईना दिखा दिया है।
अगर अब भी हम नहीं चेते, तो अगला नंबर शायद हमारा ही होगा।