संपादकीय ….
” राकेश प्रजापति ”
छिंदवाडा जिले के पारासिया ब्लॉक में तीन मासूम बच्चों की किडनी रोग से हुई मौत किसी हादसे से कम नहीं, बल्कि प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग की घोर लापरवाही का नतीजा है। सवाल यह है कि आखिर बच्चों की जान जाने के बाद ही जांच टीम क्यों सक्रिय होती है ? क्या हमारे बच्चों की जिंदगी इतनी सस्ती हो चुकी है कि मौत के बाद कागज़ी खानापूर्ति और ‘औपचारिक’ जांच ही व्यवस्था का अंतिम इलाज बन गई है ?
निजी अस्पतालों में इलाज के नाम पर परिवारों को ठगा गया, बच्चों की हालत बिगड़ती रही और अंततः मासूमों ने दम तोड़ दिया। यह सिर्फ़ इलाज में चूक नहीं, बल्कि स्वास्थ्य व्यवस्था का चरम पतन है। हर मौत इस बात का सबूत है कि सरकारी तंत्र न केवल नाकाम है बल्कि बेशर्म भी हो गया है।
कलेक्टर और विभागीय टीम का दौरा केवल दिखावे की खानापूर्ति है। जांच और रिपोर्ट का सिलसिला आखिरकार फाइलों में दबकर रह जाएगा और दोषी खुलेआम घूमते रहेंगे। यह खेल नया नहीं है—हर बार मौतें होती हैं, अखबारों में सुर्खियां बनती हैं, अफसर दौरे करते हैं और फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में चला जाता है।
अब वक्त आ गया है कि इन मौतों के लिए जिम्मेदार डॉक्टरों, अस्पताल प्रबंधन और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की सीधी जवाबदेही तय हो। उन्हें कठोरतम दंड दिया जाए ताकि भविष्य में कोई भी मासूम लापरवाही का शिकार न हो। केवल जांच बैठकों और खोखले आश्वासनों से अब जनता बहकने वाली नहीं है।
यह त्रासदी हमें आईना दिखाती है—हमारी व्यवस्था बच्चों की जान बचाने में असमर्थ है लेकिन मौत के बाद लीपा-पोती में माहिर है। जनता को अब उठ खड़ा होना होगा और यह मांग करनी होगी कि मौत के इन सौदागरों को बेनकाब किया जाए, सज़ा दी जाए और स्वास्थ्य तंत्र को सही मायनों में जवाबदेह बनाया जाए .