जब नौकरी का डर, मातृत्व-पितृत्व को निगल जाए..

“जब नौकरी का डर, मातृत्व-पितृत्व को निगल जाए”

📌 त्वरित टिप्पणी …

 ” राकेश प्रजापति “

अमरवाड़ा के धनोरा क्षेत्र में घटित घटना ने पूरे समाज को झकझोर दिया। एक शिक्षक पिता ने नौकरी जाने के डर से तीन दिन के मासूम को जंगल में पत्थर के नीचे दबा दिया। सवाल है—क्या नौकरी वाक़ई ज़िंदगी से बड़ी है?

नौकरी का भय और कलयुगी पिता …
शिक्षक—जिसे बच्चों को शिक्षा और नैतिकता सिखानी थी—खुद अपनी इंसानियत हार बैठा। “चौथा बच्चा हुआ तो नौकरी जाएगी” इस डर ने उसे अपने कलेजे के टुकड़े को पत्थर तले दफनाने पर मजबूर कर दिया। यह घटना दिखाती है कि नीतियाँ कब मौत का परवाना बन जाती हैं।

पुलिस की खानापूर्ति ….
ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने हल्की धाराओं में मामला दर्ज कर महज़ खानापूर्ति की। जब माँ-बाप ने मिलकर षड्यंत्र रचा, तो क्यों नहीं दोनों पर कठोर धाराएँ लगाईं गईं? इंसाफ़ को दबाना, अपराध से भी बड़ा अपराध है।

समाज और व्यवस्था की विफलता ….
यह त्रासदी केवल एक परिवार की नहीं, बल्कि पूरे तंत्र की विफलता है। जब तक हम नीतियों में संवेदनशीलता नहीं लाएँगे, तब तक डर और दबाव मासूम ज़िंदगियों को कुचलते रहेंगे।

डर और दबाव का संगम जब इंसानियत को कुचल देता है, तो सभ्यता अपने सबसे अंधेरे मोड़ पर खड़ी होती है।”
निष्कर्ष….
शासन-प्रशासन को चाहिए कि केवल दोषियों पर कठोर कार्रवाई न करे, बल्कि उन नीतियों की भी समीक्षा करे जो इस तरह के अमानवीय कृत्य को जन्म देती हैं। वरना आने वाली पीढ़ियाँ पूछेंगी—
👉 “क्या नौकरी वाक़ई ज़िंदगी से बड़ी थी?”