घोषणाएँ हुईं फीकी, पीड़ित परिवार आज भी आर्थिक बोझ तले दबे..

वादे से वादा-खिलाफी तक: जहरीले कफ सिरप से मासूमों की मौत पर घोषणाएँ हुईं फीकी, पीड़ित परिवार आज भी आर्थिक बोझ तले दबे

टिप्पणी : राकेश प्रजापति

छिंदवाड़ा में जहरीले कफ सिरप से 22 मासूम बच्चों की मौत की त्रासदी केवल एक स्वास्थ्य दुर्घटना नहीं थी, बल्कि प्रशासनिक संवेदनहीनता और जवाबदेही के पतन का भी दर्दनाक प्रतीक थी। उस समय, घटना के तुरंत बाद पूरे प्रदेश में शोक, आक्रोश और संवेदना की लहर उठी थी। तब मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव और उपमुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल और राज्य सरकार के अधिकारी, जनप्रतिनिधि — सभी ने पीड़ित परिवारों के बीच पहुँचकर आश्वासन दिया था कि उपचार पर आने वाला पूरा व्यय शासन वहन करेगा और परिवारों को हर संभव आर्थिक-मानसिक सहायता दी जाएगी।

लेकिन आज, घटना को महीनों बीत जाने के बाद, वही परिवार जिनके आंगन में बच्चों की किलकारी गूँजनी चाहिए थी, वहाँ अब सन्नाटा और अस्पताल के बकाया बिलों का बोझ है
यह वही स्थिति है जहाँ जनता को दिया गया राजकीय आश्वासन, केवल सांत्वना तक सीमित होकर रह गया है।

पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री को लिखे गए पत्र में यही असली समस्या उजागर होती है —
घोषणाएँ की जाती हैं, पर निभाई नहीं जातीं।

राजनीति में संवेदना का उपयोग, संवेदना का सम्मान नहीं

हमारी राजनीति का यह दुर्भाग्यपूर्ण चरित्र बन चुका है कि किसी भी दुर्घटना या त्रासदी के बाद, जनता के बीच उपजी भावनाएँ, संवेदनाएँ और आक्रोश को तुरंत राजनीतिक सहानुभूति में भुनाने की होड़ लग जाती है।
नेता आते हैं, बयान देते हैं, छायाचित्र खिंचते हैं, राहत और मुआवज़े की घोषणाएँ करते हैं — लेकिन मामला शांत होते ही वही घोषणाएँ शासन की फाइलों में क़ैद रह जाती हैं।

और जब कोई विपक्षी नेता जनता के अधिकार और वादाखिलाफी की याद दिलाता है —
तो सत्ताधारी वर्ग इसे राजनीति, साज़िश, और पुराने कार्यकाल की तुलना का खेल बनाकर जनता के असली मुद्दे को किनारे कर देता है।

यह एक गहरी विडंबना है —
मुद्दा बच्चों के जीवन का है, परिवारों की वेदना का है, शासन की जिम्मेदारी का है,
लेकिन बहस पहुँच जाती है —
किसने क्या किया, कौन कितना दोषी, कौन कितना महान।

विश्वास का क्षरण — समाज के लिए सबसे खतरनाक स्थिति

जब जनता को यह अनुभव होने लगता है कि:

  • घोषणाएँ सिर्फ तात्कालिक हैं

  • संवेदना प्रदर्शन केवल दिखावा है

  • और शासन की जिम्मेदारी सिर्फ कैमरे तक सीमित है

तो धीरे-धीरे जनता का विश्वास लोकतंत्र की मूल संस्थाओं से उठने लगता है।
और किसी भी समाज के लिए इससे अधिक भयावह स्थिति और क्या हो सकती है ?

राजनीति को आत्मचिंतन की आवश्यकता

राजनेताओं को यह समझना होगा कि:

राजनीति भावनाओं से खेलकर नहीं, भावनाओं को समझकर चलती है।

चादर जितनी हो, पैर उतने ही फैलाने चाहिए — क्योंकि अगर जनता का विश्वास एक बार टूट गया, तो राजनीतिक चादर कितनी भी लंबी क्यों न हो, सच की हवा उसे उड़ाने में देर नहीं लगाती।

यह सिर्फ राहत-राशि की बात नहीं है — यह लोकतांत्रिक संवेदनशीलता, शासन की विश्वसनीयता और जनसरोकारों की ईमानदारी की परीक्षा है।
आज शासन और राजनीति दोनों को यह तय करना होगा कि घोषणाएँ जनता के दुख बाँटने का माध्यम होंगी —
या केवल समय बिताने का औज़ार।