छिंदवाड़ा की त्रासदी और नेताओं की ओछी जुबान ..

मर्यादाहीनता का नंगा नाच: छिंदवाड़ा की त्रासदी और नेताओं की ओछी जुबान ..

✍️ विशेष विश्लेषण : राकेश प्रजापति 

छिंदवाड़ा जिले मे मासूम बच्चों के असमय निधन से उपजे शोक के माहौल में नेताओं के व्यवहार को दर्शाती हैं, भारतीय राजनीति के निरंतर गिरते स्तर का एक दुखद प्रमाण हैं। राजनीति, जो मूलतः जनसेवा, लोक-कल्याण और नीतियों के निर्माण के लिए होनी चाहिए, वह आज दलगत हितों, ओछी बयानबाजी और मर्यादाहीन आचरण के दलदल में धंसती जा रही है।

संवेदना पर राजनीति का प्रहार:

परसिया में 20 से अधिक मासूमों की मौत एक ऐसी त्रासदी है, जिसने पूरे जिले को शोकाकुल कर दिया है। माताओं के आँसू अभी सूखे नहीं हैं, और घरों का सन्नाटा बच्चों की किलकारियों की यादों से भरा है। ऐसे संवेदनशील समय में, नेताओं का मुख्य कार्य शोक-संतप्त परिवारों को ढांढस देना, प्रशासनिक कमियों की जांच करना और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए ठोस कदम उठाना होना चाहिए।

किंतु, समाचार माध्यमो के सामने नेताओं ने इस दर्द को भी राजनीतिक लाभ का ‘इवेंट’ बनाने का प्रयास किया, तो कुछ ने विरोधी पक्ष पर हमला करने के लिए मर्यादा की सभी सीमाएं लाँघ दीं। एक तरफ दुख व्यक्त करने के तरीके पर सवाल उठाए गए, तो दूसरी ओर वरिष्ठ और अनुभवी नेता के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया गया। यह दर्शाता है कि आज की राजनीति में संवेदना की जगह सस्ती लोकप्रियता और आपसी द्वेष ने ले ली है।

मर्यादाहीनता का बढ़ता चलन:

राजनीति में शिष्टाचार, संस्कार और आपसी सम्मान की परंपरा रही है। ‘अपने से बड़ों और अनुभवी व्यक्तियों’ के प्रति आदर का भाव भारतीय संस्कृति का मूल है। लेकिन, मौजूदा दौर के ‘छुटभैय्ए नेताओं’ की जुबान जिस तरह से अपने से वरिष्ठ नेताओं के लिए ‘विष वमन’ कर रही है, वह चिंताजनक है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये नेता सिर्फ अपनी पार्टी के ‘अंधभक्त’ बनकर रह गए हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य चाटुकारिता और ओछी मानसिकता का प्रदर्शन करना है, भले ही इससे पार्टी और नेताओं की छवि ‘अर्धनग्न’ क्यों न हो जाए।

राजनीति दलगत हो सकती है, पर व्यक्तिगत आचरण हमेशा मर्यादित होना चाहिए। जब नेता मर्यादा को तार-तार करते हैं, तो वे केवल अपना ही नहीं, बल्कि उस लोकतांत्रिक संस्था और उस जनमत का भी अपमान करते हैं, जिसने उन्हें चुना है।

पार्टी हित नहीं, जनहित सर्वोपरि:

यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि कोई भी नेता पहले ‘जन-प्रतिनिधि’ होता है, फिर पार्टी का सदस्य। पार्टी उसे ‘टिकट’ देती है, पर जनता उसे ‘वोट’ देकर अपना प्रतिनिधित्व सौंपती है। इसलिए, राजनीति को ‘पार्टी हित’ से ऊपर उठकर ‘जनहित’ के लिए समर्पित होना चाहिए।

सत्ताधारी दल, जो प्रदेश में लंबे समय से काबिज है, को अपने ‘बड़बोले नेताओं’ पर तत्काल लगाम लगानी होगी। यदि वे ऐसा करने में असमर्थ रहते हैं, तो इसका अर्थ यह है कि पार्टी नेतृत्व भी इस पतन को मौन स्वीकृति दे रहा है।

निष्कर्ष:

छिंदवाड़ा की घटना एक चेतावनी है। यदि नेताओं का यह ओछा व्यवहार जारी रहा, जहाँ त्रासदी पर भी राजनीति हो रही है और संस्कार व मर्यादा का पूर्ण अभाव है, तो वह दिन दूर नहीं जब जनता सड़कों पर उतरकर उनकी ‘जुबान खींच’ लेगी। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है, और जब नेता जनसेवा के बजाय आपसी द्वेष और दलगत स्वार्थ को प्राथमिकता देने लगेंगे, तो जनता को अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना होगा।

जरूरी है कि सभी दल आत्म-मंथन करें और यह समझें कि राजनीति का उद्देश्य सत्ता-प्राप्ति नहीं, बल्कि समाज का उत्थान और जनता के दुख-दर्द का निवारण है। संवेदना और मर्यादा ही अच्छे लोकतंत्र की नींव हैं।