
सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रय-विभाग योग (श्रद्धा के तीन भेद)
कर्तव्य समझ जो दान करे, मन में परमार्थ परायणता,
शास्त्रोक्त विधान करे पालन, सत्यपात्र दान जिसको करता।
जो देश काल का ध्यान रखें, पर प्रत्युपकार न चाहे जो,
दानी का सात्विक दान रहा, दाता न स्वयं को माने जो।-20
पर दान दिया भारी मन से, या क्लेश समझकर दिया गया,
या बदले की आशा लेकर, जब दान किसी को किया गया।
फल की इच्छा लेकर कोई, जब दान किया जाता अर्जुन,
वह दान राजसी कहलाता, रहता सकाम दानी का मन।-21
जो दान निषिद्ध दिया जावे, अथवा अयोग्य जिसको पाता,
या पात्र दान का नहीं रहा, वह जिसको दान दिया जाता।
अथवा सुपात्र को दान मगर, वह तिरस्कार के सहित रहा,
वह दान तामसी है अर्जुन, जिसमें दाता का गर्व भरा।-22
हो यज्ञ दान या तप इनका, सात्विक व्यवहार उचित होता।
‘ॐ तत सत’ ब्रह्मतत्व वाचक, यह मन्त्र सभी दूषण धोता।
अक्षर ये तीन अनादि रहे, वह रहा सृष्टि का आदिकाल,
ब्राह्माण अरू वेद यज्ञ प्रगटे ‘ऊँ तत सत’ की महिमा अपार।-23
योगीजन सब इसलिये सदा, पर ब्रह्म प्राप्ति के लिये निरत,
तप यज्ञ दान की क्रिया में, रहते हैं जो अविरल उद्यत ।
वे उन्हें सदा प्रारंभ करें, ओंकार नाम उच्चारण से,
तप यज्ञ दान के पूर्व सभी, उच्चार ओम का ही करते।-24 क्रमशः ….