श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 127 वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 127 वी कड़ी.. 

सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रय-विभाग योग (श्रद्धा के तीन भेद)

 

कर्तव्य समझ जो दान करे, मन में परमार्थ परायणता,

शास्त्रोक्त विधान करे पालन, सत्यपात्र दान जिसको करता।

जो देश काल का ध्यान रखें, पर प्रत्युपकार न चाहे जो,

दानी का सात्विक दान रहा, दाता न स्वयं को माने जो।-20

 

पर दान दिया भारी मन से, या क्लेश समझकर दिया गया,

या बदले की आशा लेकर, जब दान किसी को किया गया।

फल की इच्छा लेकर कोई, जब दान किया जाता अर्जुन,

वह दान राजसी कहलाता, रहता सकाम दानी का मन।-21

 

जो दान निषिद्ध दिया जावे, अथवा अयोग्य जिसको पाता,

या पात्र दान का नहीं रहा, वह जिसको दान दिया जाता।

अथवा सुपात्र को दान मगर, वह तिरस्कार के सहित रहा,

वह दान तामसी है अर्जुन, जिसमें दाता का गर्व भरा।-22

 

हो यज्ञ दान या तप इनका, सात्विक व्यवहार उचित होता।

‘ॐ तत सत’ ब्रह्मतत्व वाचक, यह मन्त्र सभी दूषण धोता।

अक्षर ये तीन अनादि रहे, वह रहा सृष्टि का आदिकाल,

ब्राह्माण अरू वेद यज्ञ प्रगटे ‘ऊँ तत सत’ की महिमा अपार।-23

 

योगीजन सब इसलिये सदा, पर ब्रह्म प्राप्ति के लिये निरत,

तप यज्ञ दान की क्रिया में, रहते हैं जो अविरल उद्यत ।

वे उन्हें सदा प्रारंभ करें, ओंकार नाम उच्चारण से,

तप यज्ञ दान के पूर्व सभी, उच्चार ओम का ही करते।-24    क्रमशः ….