
सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रय-विभाग योग (श्रद्धा के तीन भेद)
तप वाणी का जिसको कहते, वह रहा सत्य प्रिय शुभ भाषण,
वेदो का पठन पाठ प्रतिदिन, अभ्यास निरंतर अरू अध्ययन।
उद्वेग रहित हो मधुर बोल, उदिग्न न उद्वेलन कारी,
श्रोता को प्रिय लगने वाले, सुनने वाले को हितकारी।-15
मन का तप कहते हैं जिसको, वह पहिला रहा आत्म संयम,
मन तपोनिष्ठ होता जिसका, वह कर लेता इन्द्रिय संयम।
वह सौम्य मौन निष्कपट शुद्ध, अति सरल हृदय रहता प्रसन्न,
परहित चिन्तन में लीन रहे, संशुद्धि भाव उसका अनन्य।-16
तन के मन के अरू वाणी के से तीन सात्विक तप अर्जुन,
निस्वार्थ भाव से किया गया, होता जब इनका परिपालन।
प्रभु की प्रसन्नता पाने को, श्रद्धापूर्वक इनको करते,
तपव्रती कामना नहीं कभी, अपनी कोई लौकिक करते।-17
तप त्याग दिखावा करने का, या आकर्षित जन मन करने,
पाने सत्कार मान पूजा, या तुष्टि अहम् की ही करने।
जो किया गया, वह रजोगुणी, तप रहा राजसी हे अर्जुन,
अनियत फल क्षणिक प्रदान करे, चलता है यह थोड़े ही दिन।-18
हठपूर्वक जिसे किया जाता, अविवेकपूर्ण अनहित करने,
अपनी आत्मा को पीडित कर, या अन्यों को पीडित करने।
करने विनाश अथवा अनिष्ट, जिस तप का होता आयोजन,
जिसका परिणाम न हितकारी, वह रहा तामसी तप अर्जुन।-19 क्रमशः ….