
सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रय-विभाग योग (श्रद्धा के तीन भेद)
जो वेद विरूद्ध मनोकल्पित तप के नूतन विधान रचते,
उनका स्वभाव आसुरी रहा वे हितकर कार्य नहीं करते।
वे दंभ दर्प से भरे मनुज, करते हैं वास रजोगुण में,
आसक्ति कामना लिये हुये, वे भ्रमित रहे अपने बल में।-5
वे अहंकार के वशीभूत, तप से अपना तन सुखा चले,
अविवेकी वे इस भांति मुझे, पहुँचाते कष्ट न यह समझे।
मुझ अनतर्यामी प्रभु को जो, दुख देने वाले असुर रहे,
वे शास्त्रों के विपरीत चले, वे नहीं बन्धनों से उबरे ।-6
गुण प्रकृति भेद से भोजन भी, होता है अलग-अलग सबका,
यह तीन तरह का होता है, जैसी रूचि वैसा वह रूचता।
वैसी ही यज्ञ दान तप के होते हैं तीन भेद अर्जुन,
आश्रित गुण के आचार रहे, उनके रहस्य को भी अब सुन।-7
जो आयु बढ़ाने वाले हो, हो अन्तकरण शुद्ध जिससे,
बलबुद्धि करे सुखदायक जो, आरोग्य प्राप्त होवे जिससे ।
रसमय जो स्निग्ध सुस्थिर जो, हृदय को जो उमंगित करते,
आहार घटक है सात्विक ये, सात्विक जन को प्रिय लगते।-8
तो तिक्त स्वाद के खट्टे हो, कडुए नमकीन गरम तीखे,
रूखें जो रहे दाहकारी, जो ग्राहक होते हैं जी के।
जो रोग-शोक के कारण हो, जो भोज्य पदार्थ दुखी करते,
वे घटक राजसी भोजन के, राजस मनुष्य को प्रिय लगते।-9 क्रमशः ….