
चौदहवाँ अध्याय गुणत्रय-विभाग योग (त्रिगुणमयी माया)
समदृष्टि रखे वह आत्मनिष्ठ, सम हो जिसको मानापमान,
निन्दा स्तुति, प्रिय अप्रिय जिसे, हो शत्रु मित्र दोनों समान।
व्यवहार मित्र से जैसा हो, वैसा ही अरि के साथ करे,
गुण ही गुण से करते वर्तन, वह नहीं कर्म में लिप्त रहे।-24
जिसने सकाम सब कर्मो का, कर दिया त्याग वह गुणातीत,
कर रहा कर्म अपने सारे, पर रहा कर्म से वह अतीत ।
माया प्रभाव से मुक्ति हेतु, करना न पड़े उसको प्रयास,
वह भोग-त्याग इच्छा के बिन, मानो असंग है कार्यवाह।-25
सम्पूर्ण जगत प्राकृत गुण की, माया के वश में काम करे,
मायिक जग की क्रियाओं का, पर असर न उस पर तनिक पड़े।
जो भक्ति योग का पालन कर, मुझसे अनन्य रखता नाता,
वह गुणातीत हो ब्रह्मभूत, हे अर्जुन मुझसे जुड़ जाता।-26
सत्यानुभूति का प्रथम चरण, है ब्रह्म तत्व का ज्ञान पार्थ
तदन्तर तत्व ज्ञान होता,जो चरण दूसरा रहा पार्थ।
निर्विशेष ब्रह्म अरू परमात्मा है आदि पुरुष के अन्तर्गत,
मैं परम सच्चिदानंद प्रभु मैं ही हूँ रे सबका आश्रय।-27
॥ इति चतुर्थदशम अध्याय ॥