श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 91वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 91वी कड़ी.. 

ग्यारहवां अध्याय  : विश्वरूप-दर्शन योग (श्री भगवान का विश्वरूप)

 

जो विश्व रूप प्रभु से निकले, वह तेज अनिर्वचनीय रहा,

उसका न बोध होने पाता, शब्दों अर्थो में नहीं बँधा।

यदि कोटिक सूर्य इकट्ठे हो, ऊगे मिलकर सब एक साथ,

वह भी न कदाचित वैसा हो, जैसा होता विभु का प्रकाश।-12

 

उस एक जगह पर अर्जुन ने, देखा ब्रह्माण्ड जगत सारा,

होकर विभक्त उसके सम्मुख, अवतरित हुआ था जो सारा।

भगवान कृष्ण के तन में ही ब्रह्मण्ड सकल उसने देखे, मृण्मय,

हिरण्यमय, मणिमय भी, अति दीर्घ, सूक्ष्म अति सब देखे।-13

 

दर्शन कर दिव्य रूप प्रभु का, अर्जुन में जागा भक्ति भाव,

श्रीकृष्ण सखा था जिनका वह, उनके प्रति बदला हृदय भाव।

अद्भूत रस का उन्मेष हुआ, विस्मयाविष्ठ वह पुलकित तन,

आपूरित भक्ति झुकाये सिर, कर जोर विनय करता अर्जुन।-14

अर्जुन उवाच :-

अर्जुन ने कहा कि हे भगवन, परिव्याप्त आपका यह शरीर,

मैं देख रहा इसमें बसते, सम्पूर्ण देवता सकुल जीव।

कमलासन पर देखे विरंचि वासुकी पर पौढे रमाकान्त,

सर्पों को ऋषियों को देखा, त्रिभुवन पति देखे उमाकान्त।-15

 

सम्पूर्ण जगत के स्वामी हे, यह अद्भूत रहा विराट रूप,

मैं देख रहा इसके बहुमुख, बहुकर इसके बहु नेत्र रूप।

बहु उदर अनन्त रूप वाले मैं देख रहा इसको भगवन,

इसका न आदि है, मध्य नहीं, इसका न अन्त दिखता भगवन।-16

 

बहु सिर, सिर पर बहु मुकुट रहे, बहु कर जो धारे चक्र गदा,

शोभित स्वरूप अति तेजों मय, हर दिशा प्रकाशित रही सदा,

तेजोमय इतना अधिक रूप, संभव न देख पाना इसको,

ज्यों नेत्र निभीलित हो जाते, जो देखें दीप्त दिवाकर को।-17    क्रमशः…