श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 34वी कड़ी .. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 34वी कड़ी..                                                                                                                                                                                                   
तीसरा अध्याय :  – कर्मयोग                                                                                                                                                                
अर्जुन उवाच –                                                                                                                                                                                 
कल्पादि काल में ब्रह्म ने, जब यज्ञ प्रजा के साथ रचा,हो निरत यज्ञ में वृद्धि करो, यह वचन प्रजा से आप्त कहा।यह यज्ञ भोग इच्छित देगा, मन वांछित फल सब पायेंगे,सुख भोग भोगकर जीवन में, भव बंधन मुक्ति कमायेंगे।-10

 

देवों को सतत प्रसन्न करो, यज्ञों का साधो आयोजन,

होकर प्रसन्न सुरगण तुम पर, देंगे तुमको उत्तम भोजन।

पोषण इस तरह परस्पर तुम, करना अपने सत्कर्मों से,

समृद्धि शान्ति विकसित होगी, व्यूत होना कभी न धर्मो से।-11

 

जीवन के आवश्यक पदार्थ, सब सुलभ देवतागण करते,

होकर प्रसन्न यज्ञों से व आपूर्ति कामना की करते।

पर उनको अर्पण किये बिना, जो भोग भोगता मनुज स्वयं,

वह चोर प्रवंचक है निश्चित, निर्मल न रहा फिर उसका मन।-12

 

जो यज्ञ प्रसाद ग्रहण करते, वे भक्त मुक्ति पा जाते हैं,

उनके पापों के सब बन्धन, स्वाभाविक ही कट जाते हैं।

पर इन्द्रिय सुख के लिये विकल, जो करते हैं आहार ग्रहण,

वे मानो स्वयं पाप खाते, पापो से दूषित उनके मन।-13

 

आधार मनुज के जीवन का, होता आहार, अन्न होता,

वह अन्न फसल से मिलता जो, वर्षा पर अवलम्बित होता।

होती है वर्षा यज्ञों से, अरू यज्ञ स्वधर्म से प्रगट हुए,

जो रहे कर्मयोगी वे सब, भगवत्प्रसाद के लिये जिये।-14

 

वेदों में कर्मविधान रहा, निज धर्म ज्ञात होता उनसे,

पर ब्रह्मा वेद के हेतु बने, अवतरित वेद उनके मुख से।

अतएव सर्वव्यापी परात्व, यज्ञों में नित्य प्रतिष्ठित है,

हो कर्म पीति प्रभु की पाने, हे अर्जुन यही अभीप्सित है।-15     क्रमशः…