मध्यप्रदेश शिव उपासना का गौरव शाली इतिहास ..
महाशिवरात्रि पर विशेष ….
राकेश प्रजापति
सतपुड़ा की सुरम्य वादियों में मनोरम उपत्यकाओं की गोद में बसे मध्य प्रदेश के श्रीवनी (सिवनी) जिले से २० किलोमीटर शहरी कोलाहल से दूर शांत छोटा सा गांव दिघोरी, जो बद्रीकाश्रम, द्वारका शंकराचार्य जगतगुरु स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की जन्म स्थली होने से भी पावन है दिघोरी ग्राम में दक्षिण भारत की प्रसिद्ध तंजावुर शैली में विशाल व भव्य शिवमंदिर का निर्माण किया गया है। इस मंदिर में हिमालय की तराई से प्राप्त विश्व के चमकीले अनूठे नैसर्गिक स्फटिक मणि से निर्मित ५१ किलोग्राम वजन वाले शिवलिंग की स्थापना की गई है।
हिमालय की तराई से प्राप्त नैसर्गिक शिवलिंग की विशेषता है कि यह एक ही हिमखंड से निर्मित प्राकृतिक शिवलिंग है जो वर्फ के बीच अपने स्वरूप में था, पूना निवासी स्वामी श्याम दास को यह शिवलिंग मिलने पर उन्होंने प्रकृति की इस घरोहर शंकराचार्य जगतगुरु स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को भेंट कर दिया ! इस शिवलिंग को शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद महाराज ने श्री गुरुरत्नेश्रवर महादेव नाम दिया। दिघोरी में स्थित गुरुरत्नेश्वर महादेव के इस मंदिर का निर्माण कार्य १५ सितम्बर १९९९ को प्रारंभ हुआ। संगमरमर से निर्मित यह मंदिर १७० फिट लंबा और ७२ फिट चौड़ है। मंदिर के शीर्ष पर स्वर्ण मंडित्त सात कलश स्थापित किये गये हैं। मंदिर में ५१ किलोग्राम का स्फटिक शिवलिंग पूरी दुनिया में पहला और अद्भुद है।
१५ फरवरी २००२ को विश्व के पहले स्फटिक शिवलिंग श्री गुस्रत्नेश्वर महादेव की वैदिक रीति से मंत्रों के बीच प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई, घंटे, धडवाल, ताल-मंजीरे और डमरुओं की जयघोष के साथ गुरु श्री रत्नेश्वर महाराज के दर्शनों के लिये इस नवनिर्मित मंदिर के मुख्यद्वारा को खोल दिया गया। यह शिव मंदिर जहां उत्तर, दक्षिण और मध्य भारत की आध्यात्मिक एकता का प्रतीक है ! वहीं दुर्लभ और अद्भुद स्फटिक शिवलिंग करोड़ों शिव भक्तों की श्रद्धा और आकर्षण का बड़ा केन्द्र बन गया है। पुराणों और शास्त्रों में उल्लेखित पवित्र “वेणु नदी” अर्थात् बेनगांगा नदी के पावन तट पर निर्मित इस भव्य मंदिर का विशेष महत्व है !
श्री गुरु रत्नेश्वर महादेव प्राकृतिक रूप से कश्मीर में प्राप्त स्फटिक मणि से बना दिव्य स्फटिक शिवलिंग है ! जो पूरे देश और दुनिया में अपने ढंग का पहला और अद्भुद है, धर्माचायों और धर्मग्रंथों के अनुसार इसके दर्शन मात्र से धर्मप्रेमियों को सुख शांति, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ,तथा कष्टों का निवारण होता है। ऐसा माना जाता है कि हिमालय के ऊंचे पर्वतों पर बर्फ का कोई टुकड़ा हजारों वर्षों तक रह जाता है और सूर्य की गर्मी उसे पिघला नहीं पाती तब ऐसी बर्फ की चट्टान के अंदर एक छोटी सी स्फटिक मणि का निर्माण होता है।
शास्त्रों के अनुसार स्फटिक मणि के शिवलिंग की पूजा से पाप दोषों का नाश होता है और यह स्पर्श द्वारा दूषित नहीं होती। स्फटिक शिवलिंग की उपासना से मेन में निर्मलता आती है, शास्त्रों में आठ लिंग माने गये हैं यह है सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, चंद्र, आकाश, अग्नि, और आत्मा। इनमें से आत्मारुपी लिंग का स्वरुप स्फटिक मणि बताया गया है।
वैसे-भी मध्यप्रदेश में भगवान शिव की उपासना की एक समूही और प्राचीन परम्परा है भगवान शिव इस क्षेत्र के आम लोगों के साथ-साथ शासकों तथा राजवंशों के भी प्रिय देवता रहे हैं। अर्द्ध एतिहासिक काल में चेदि तथा अवन्ति राज्यों में शिव की लोकप्रियता को साहित्यिक और पुरातात्विक शोधकर्ताओं ने उजागर किया है। पवित्र नर्मदा नदी के तट पर बसा महेश्वर नगर शिव उपासना का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। मंदिरों की इस सुंदर नगरी का वर्णन रामायण-महाभारत में भी है।
पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगवान शिव ने त्रिपुर राक्षस का वध इसी स्थान पर किया था। उज्जैन जिसके प्राचीन नाम उज्जयिनी तथा अवन्तिकापुरी भी है शिव उपासना का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। यहां पर महाकालेश्वर का प्राचीन मंदिर है, जिसमें स्थापित शिवलिंग देश के १२ ज्योतिलिंगों में से एक है। मध्यप्रदेश में ओमकारेश्वर शेव परम्परा का एक अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र है। यहां स्थापित शिवलिंग भी भारत में स्थित १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है। शिव के निराकार और साकार दोनों रूप हैं, सगुणोपासक उन्हें साकार रूप में पूजते हैं, किन्तु मूलतः विश्व में उनकी ज्योतिलिंग के रूप में निराकार स्वरूप की ही पूजा प्रतिष्ठित है, सगुणोपासक जहां शिव के साकार रूप में पूजा करते है यहां भी ज्योतिलिंग विद्माधन रहते हैं, लिंग का अर्थ है चिन्ह शैवमतावलम्बियों के लिये ज्योतिर्लिंग का विशेष महत्व माना जाता है,
शिव के १२ ज्योतिर्लिंग की महत्ता शास्त्रों में वर्णित है,जो विभिन्न स्थानों पर अवस्थित है। ज्योतिर्लिंग १२ हैं। सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्री शैल पर मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी में श्री भीमशंकर, सेतुबंध पर रामेश्वरम, दारुकावन में श्री नागेश्वर, वाराणसी में श्री विश्वनाथ गौतमी के तट पर त्रयम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारनाथ, शिवालय में घुश्मेश्वर के रूप में अवस्थित है। इनके प्रातः और सायं स्मरण मात्र से सात जन्मों के पाप कट जाते हैं। इन बारह ज्योतिर्लिंगों के अतिरिक्त ओठ उपज्योतिर्लिंगों की भी महत्ता बताई गई है, ये हैं मल्लिकार्जुन से प्रकट रुद्रेश्वर, जो भडोच में स्थित है, नर्मदा तट पर महाकाल से प्रकट दुग्धेश्वर, सिद्धपुर में ओंकारेश्वर से प्रकट कर्ममेश, मथुरा में यमुना के तट पर केदारेश्वर से प्रकट भीमेश्वर, सरस्वती तट पर नागेश्वर से प्रकट भूलेश्वर, रामेश्वर में प्रकट गुप्तेश्वर ओर घुरमेश्वर से प्रकट व्याघेश्वर इन पौराणिक कथाओं से जुड़े प्राचीन ज्योतिलिंगों के अतिरिक्त देश के कोने-कोने में ज्योतिर्लिंग विद्यमान हैं !
शिव के पांच मुख बताए गये हैं ईशान, तत्पुरुष, अधोर, वामदेव और संयोजात। शुंग सातयातन काल में इस क्षेत्र में वैदिक और पौराणिक परम्पराओं के साथ-साथ शेव परम्परा का भी खूब विकास हुआ, नागवंशी राजा शिव के परम भक्त थे इस काल में शिव और नाग की पूजा अत्यधिक लोकप्रिय रही। इन शासकों ने अत्यंत सुंदर शिव मंदिर बनवाये, इन मंदिरों के अवशेष पवाया, मथुरा तथा कुछ अन्य स्थानों परं प्राप्त हुये। उज्जैन के पास पिंग्लेश्वर में एक पंचमुखी शिवलिंग प्राप्त हुआ है, शुन-कुषाण काल का है। उज्जैन से प्राप्त प्राचीन सिक्कों पर भी शिय की छवियों उत्कीर्ण है, जिनमें शिय को हाथ में दंड और कमण्डल लिए दर्शाया गया है, कुछ सिक्कों में वे अपनी पत्नी पार्वती के साथ भी दिखाई देते हैं। उदयगिरी, भूमरा, नचना, खोह, उचैहरा, नागौद आदि में शिव के मंदिर गुप्तकाल में बनवाये गये थे, विध्यप्रदेश में ज्योतिर्लिंग और मुखलिंग पाये गये है। जसी, नचना, वैशनगर, खोह तथा अनेक स्थानों पर शिवलिंग सदाशिव रूप में है।
भोपाल से ३२ किलोमीटर दूर भोजपुर ग्यारहवीं शताब्दी में राजाभोज द्वारा निर्मित प्रसिद्ध शिव मंदिर है, जिसको निर्माण, ग्यारहवीं शताब्दी में किया गया था, इस मंदिर में २६ फुट की ऊंचाई के गढ़े हुये आधार पर एक बहुत विशाल, शिवलिंग स्थापित है, इसके अलावा शिव-पार्वती, अर्द्धनारीश्वर तथा नटराज रूप में शिव प्रतिमाओं का निर्माण गुप्तकाल में ही शुरु हुआ, इसके बाद धीरे-धीरे गणेश, कर्तिक तथा शिवगणों की प्रतिमाएं भी विभिन्न रुपाकारों में बनाई जाने लगी, विध्य में प्राप्त महिषामर्दिनी प्रतिमा चौथी शताब्दी की है और उस काल की मूर्तिकाल का अप्रतिम उदाहरण है।
सतना जिले के भमुरा में एक शिव मंदिर का निर्माण किया गया जिसकी दीवारों पर शिवगणों को बडी सुन्दरता और कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण किया गया है, पार्वती के अलग-अलग मंदिर भी पाये गये है, इस मंदिर में चर्तुमुखी शिव की प्रतिमा समृद्ध मूर्तिकला का अद्भुत उदाहरण है, मंदसौर के शिव मंदिर में अष्टमुखी शिव प्रतिमा है।
मध्यकाल में न केवल विंध्य और मालवा अपितु बहुत महाकौशल क्षेत्र में भी शैव प्रम्परा लोकप्रिय हुई और छठी से तेरहवीं शताब्दी तक शिव के अत्यन्त सुन्दर और भव्य मंदिर इस क्षेत्र में बनाये गये, इस काल में शासन करने वाले अनेक राजवंश शिवभक्त थे, जिनमें गुप्त प्रतिहार, चंदेल, कसचुरी, कच्छपघात तथा परमान शामिल थे, विश्व प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर चंदेल राजाओं ने थे, से शिव के हैं, इन मंदिरों पर तत्कालीन तांत्रिक कौल कापालिक परम्परा का प्रभाव है कलचुरी राजाओं ने त्रिपुरी, बिलहरी, नोहटा, गुरगी, अमरकंटक, जांजगीर, रतनपुर आदि में भव्य शिव मंदिरों का निर्माण कराया, उन्होंने शिव उपासना की विभिन्न शाखाओं को संरक्षण प्रदान किया, कलचुरी राजा युवराज देव ने एक शिव मंदिर बनावाया जो अब चौसठयोगिनी मंदिर के रूप में विंध्य और महाकोशल क्षेत्र में प्रसिद्ध है, गुर्जर राजाओं के काल में शिव के अनेक बनवाये गये, जिनमें ग्वालियर स्थित तेलीका मंदिर बहुत मशहूर है, परमार राजाओं ने शव परम्परा के विकास में बहुत योगदान दिया, मंजु, भोज, उदयादित तथा निश्वमेन शिव के अनन्य भक्त थे और दरबनवाये जहांशिव की विभिन्न रुपाकारा में सुदर मूर्तिया हैं।
शिव का अर्थ ही है परमकल्याणकारी, भगवान शिव को उनके भक्त भोलेनाथ भी कहते हैं शिव का स्वभाव “एवमस्तु” नैने कभी-कभी बिना बिचारे वरदान भोलेनाथ कहा सरल है केवल ॐनमः शिवाय के जाता ह पंचाक्षरी मंत्र जाप भर से भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हो जाते हैं, भस्म, त्रिपुण्ड और रुद्राक्ष माला शिवपूजन की विशेष सामग्री है शिव की पूजा करताल बजाकर की जानी चाहिए, शिवलिंग की परिक्रमा कभी चारों ओर घूमकर नहीं की जाती जहां से जल निकलता है वहां से उल्टी परिक्रमा की जाती है, शिव जन-जन क. आराध्य है, ओंकारोपासना विधि-विधान को न जानने वाला भी तथा किसी वर्षा का कोई भी व्यक्ति उनकी उपासना कर सकता है उनका सभी से प्रेम है किसी से बैर नहीं, इसलिए दैत्य, दानव और राक्षस भी इन्हें अपना ईष्ट और आराध्य मानते हैं और इसी विशिष्टतावश वह समस्त देवों में सर्वोच्च स्थान रखते हैं।