आस्था की जमीन पर भूमाफियों की नज़र ..

आज की बात ..

टिप्पणी : राकेश प्रजापति 

गणपति मठ की भूमि दान विवाद — आस्था की आड़ में प्रशासनिक ढांचा और भूमाफिया की सक्रियता

पांढुर्णा में गणपति मठ की भूमि को लेकर उठा विवाद अब केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं रहा — यह मामला अब जिले की आधारभूत संरचनाओं के निर्माण और भूमाफिया की सांठगांठ से भी गहराई से जुड़ गया है।

सूत्रों के मुताबिक जिले में कलेक्टर कार्यालय, सरकारी विभागों के भवन और अधिकारी-कर्मचारियों के आवासीय परिसर के निर्माण की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। ऐसे में भूमि का मूल्य तेजी से बढ़ने की संभावना है। ठीक इसी समय गणपति मठ की भूमि को लेकर दान का विवाद सामने आना, इस पूरे घटनाक्रम की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है।

पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष प्रवीण पालीवाल का यह कहना कि “दान देने और लेने वाला एक ही पक्ष है” — कानूनी रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है। धार्मिक न्यास अधिनियम और सिविल प्रक्रिया संहिता (धारा 92) के अनुसार, ऐसी किसी भी संपत्ति का दान तभी वैध है जब यह सार्वजनिक हित में और प्रशासनिक स्वीकृति के साथ किया गया हो।

लेकिन यहां यह प्रक्रिया न केवल अस्पष्ट है, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भूमाफिया इस मौके का फायदा उठाकर सरकारी निर्माण कार्यों से जुड़े भू-स्वामित्व के खेल को दिशा देने की कोशिश में हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि धार्मिक संस्थानों की भूमि जनता की आस्था से जुड़ी होती है। यदि इन्हें निजी लाभ या राजनैतिक सौदेबाज़ी का माध्यम बनाया गया, तो यह न केवल अनैतिक, बल्कि कानूनी अपराध भी बन सकता है।

सरकार को चाहिए कि वह इस पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच करवाए और यह सुनिश्चित करे कि मठ की भूमि का उपयोग केवल सार्वजनिक और धार्मिक उद्देश्यों के लिए ही हो।

आस्था के नाम पर अगर प्रशासनिक ढांचे की ज़मीनें और जनता की भावनाएं बेची जाने लगें — तो यह न सिर्फ शासन पर प्रश्नचिन्ह है, बल्कि लोकतांत्रिक जवाबदेही पर भी कलंक है।

निष्कर्ष:

“दान” अगर पारदर्शिता और सद्भावना से किया जाए तो पुण्य है,

परंतु सत्ता, संरक्षण और स्वार्थ से प्रेरित दान — पाप के समान है।