
तेरहवाँ अध्याय : प्रकति-पुरुष-विवेक योग
इस परमात्मा को पाने को, कितने ही जन साधना करते,
कोई विशुद्ध चित्त से ध्याते, अपने उर में दर्शन करतें।
कुछ ज्ञान योग का साधना कर, रे परम तत्व को पा जाते,
करने प्रसन्न परमात्मा को, निष्काम कर्म कुछ अपनाते।-24
कुछ ऐसे भी होते अर्जुन, जिनको न ज्ञान होने पाता,
पर श्रद्धा भाव लिए मन में, वह भक्ति परायण हो जाता।
आचार्यों से परमात्मा का, सुनकर गुणगान मुदित होते,
वे जन्म मृत्यु के बन्धन से, हो मुक्त जीव भव से तरते।-25
यह प्रकृति और जीवात्मा, दोनों ही तत्व अनादि रहे,
संयोग हुआ दोनों का तो, यह सृष्टि चराचर रूप बसे।
क्षेत्रज्ञ पुरुष है क्षेत्र प्रकृति, संयोग सृष्टि यह समझ पार्थ,
ये रूप प्रकृति के ही है दो, जो परा जीव अपरा यथार्थ।-26
देहात्मा के संग परमात्मा, सब जीवों में नित वास करे,
जो जीवों में ऐसा देखे जो जीवों में ऐसा समझे।
विघटित होते हैं पंच तत्व, पर उसका होता नाश नहीं,
ऐसा जिसने देखा समझा, वह देख रहा है पार्थ सही।-27
जो पुरुष देखता परम पिता, जीवों में बसता एकरूप,
जो समझ रहा होता यह जग, बस रहा दुखों का एक कूप
वह अपना अधः पतन रोके, अपना स्वरूप पहिचान सके,
हो जाता प्राप्त परम गति को, परमार्थ जीव वह साध सके।-28
सम्पूर्ण कर्म देहोत्पन्न, प्राकृत होते जो पुरुष लखे,
कर्ता न रहा उनका आत्मा, कर्मो को जो इस तरह लखे।
वह रहा तत्वदर्शी अर्जुन, आत्मा कर्मों से परे रहा,
तन के स्वभाव वश कर्म रहे, जीवात्मा उनसे मुक्त रहा।-29 क्रमशः…