‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 93 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 93 वी कड़ी ..

                               अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’

  अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “

श्लोक  (२१,२२)

वह परा शक्ति है दिव्य नित्य, अक्षर कहलाता परम धाम,

अव्यक्त वही परमोच्च शिखर, वह परम पुरुष का परम धाम।

जाए जो वहाँ न आए फिर, संसार छूट उससे जाता,

जो परम धाम को पहुँच गया, वह नहीं लौट जग में आता।

 

वे परम पुरुष भगवान पार्थ, मिलते अनन्य जब भक्ति रहे,

बसते हैं परम धाम में वे, फिर भी हैं वे सर्वत्र बसे ।

वे व्याप्त सकल जड़ चेतन में, उनमें ही निहित विश्व सारा,

आधारभूत वे मूल रहे, ब्रह्माण्ड सकल जिसने धारा ।

 

अव्यक्त अनश्वर कहलाता, सर्वोच्च रहा, सर्वोपरि वह,

पा लेता है जो उसे पार्थ, फिर लौट नहीं आता है वह ।

वह ही है मेरा परम धाम, सम्पूर्ण चेतना की सत्ता,

संयोजित जब मुझमें होती, अस्तित्व नहीं कोई बचता ।

 

हे पार्थ प्राप्त हो परम पिता, जिसमें सब भूत निवास करें,

जिसमें संसार बसे उजड़े, जग के सारे व्यापार चलें ।

परिव्याप्त जगत सारा जिसमें, उसको साधक पा जाता है,

होकर अनन्य जो भक्तिभाव से, सतचित से जुड़ जाता है।

 

भगवद् स्वरुप की प्राप्ति कहें, या नित्य धाम की प्राप्ति उसे,

या भगवद भाव कहें उसको, साधक करता उपलब्ध जिसे ।

इनमें न वस्तुगत भेद रहा, है भेद साधना का केवल,

है लक्ष्य सभी का एक, मार्ग हैं अलग अलग जिसके केवल ।

 

मन बुद्धि न जिसको पा पाते, आकार धरे जो निराकार,

आकार मिटे, वह मिटे नहीं, जो विस्तृत फैला है अपार ।

उसका ही नाम परम गति है, चाहा करते जिसको भोगी,

वह है शरीर में विद्यमान, उसके जो हैं जग का भोगी ।

 

रहता वह सुप्तावस्था में, कुछ करता नहीं न करवाए,

व्यापार देह का पर अर्जुन, सब अपने आप चला जाए ।

रुकता है कोई काम नहीं, ज्यों राज-काज चलता रहता,

राजा सुख से सोता रहता-पर कार्य नहीं कोई रुकता ।

 

सक्रिय हो रहीं इन्द्रियाँ सब, व्यापार अबाध चलें सबके,

बाजार विषय का रहे भरा, मन के चौराहे पर बस के ।

सुख-दुख का हिस्सा अन्तर्यामी अन्तःकरण भोगता है,

वह चाहे या न चाहे कर्मो का फल सिर पर ढोता हैं।

 

जिस तरह कार्य जग के सारे, रवि के प्रकाश में चलते हैं,

यद्यपि न चलाता रवि उनको, पर तीनों लोक उजलते हैं।

वह सुप्तावस्था में अर्जुन, रहता शरीर में विद्यमान,

इसलिए पुरुष कहते उसको, उससे रहता तन भासमान

 

वेदों ने खूब विचार किया, पर उसे न पूर्ण बखान सके,

उसकी तो बात सुदूर रहीं, पंखुरी न फूल की आँक सके।

योगीजन जिनको जीव-प्रकृति से परे बस्तु बतलाते हैं,

वे देव स्वयंभू भक्तों का घर स्वयं पूछते आते हैं ।

 

वे भक्त बने होते आश्रम, उसका जो चेतन अविनाशी,

मन वचन कर्म से एक निष्ठ आस्था जिनमें जीवन पाती ।

उन आस्तिक भक्तों का आश्रय ही वैभव निरालम्ब को दे,

दे गुणहीनों को ज्ञान, राज्य सुख का, निस्पृह साधक को दे।

 

सन्तोषी जन को भरा थाल, दे भोजन का सम्मान सहित,

शारणागत को जो अपनाकर, कर दे दुख चिन्ता भार रहित ।

ज्यों शीतल वायु ताप हर लेती है जल का जो ऊष्ण रहा,

जो रहा तिमिर सूर्योदय में वह रुप बदल आलोक बना ।

 

जो पहुँच गया परमात्मा के घर, उसका मोक्ष हुआ अर्जुन,

पड़ काष्ठ अग्नि में अग्नि बने, फिर बचे न काष्ठ कहीं अर्जुन ।

चीनी बन जाने पर फिर वह बन पाती कभी न ऊख पार्,

पारस लोहे को स्वर्ण करे, लोहा न बने फिर वह पदार्थ ।

 

जिस तरह न घी फिर बने दूध, जिस तरह न राख फिर वस्तु बने,

जिस तरह न सरिता सागर में मिल सरिता रहकर और बहे ।

वह धाम जहाँ पर जन्म नहीं, पहुँचा जो जन्म न पाता है,

अर्जुन जो पाता परम धाम, वह मुझमें लय हो जाता है

 

परमात्मा के अंतर्गत ही, लौकिक जग का विस्तार रहा,

सारे लौकिक जग में अर्जुन परमात्मा वह परिव्याप्त रहा ।

उसको पाने की राह एक, हो भक्त आस्थावान अडिग,

मन में हो भक्ति अनन्य, भावना रहे सदैव अकम्प अडिग । क्रमशः…