रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’
अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “
श्लोक (२०)
अर्जुन अव्यक्त परे इससे, है परम श्रेष्ठ अव्यक्त भाव,
वह रहा विलक्षण चिर चेतन, उसका न कभी होता अभाव ।
वह दिव्य सनातन परम पुरुष, माया अपने में रखे लीन,
भूतादिक होते नष्ट, न होता नष्ट, रहा वह चिर नवीन ।
जड़ प्रकृति व्यक्त अव्यक्त रही, इसमें होता नित परिवर्तन,
इसके ऊपर है प्रकृति एक, जिसका स्वरुप रहता चेतन ।
संसार नष्ट होता लेकिन, उसका होता अवसान नहीं,
वह अविकारी, वह नित्य रही, अविनाशी का क्या अन्त कभी?
हे अर्जुन अधियज्ञ उपासक, दिव्य पुरुष को पा जाता,
निर्गुण अक्षर ब्रम्ह साधकों को भी ईश्वर मिल जाता ।
मेरे सगुण रुप को भजकर भी साधक मुझको पाता,
इन तीनों में भेद न कोई, जन्म नहीं कोई पाता।
रही प्रकृति की साम्यावस्था, किए समाहित अग जग को,
उसमें भूत न बचता कोई, तत्व न रहा समझने को ।
बन जाता जब दूध दही, वह भिन्न दूध से हो जाता,
नाम रुप अदृश्य दूध का होता, त्यों जग खो जाता ।
जिसके कारण हुआ सभी यह, वह माया नित चेतन है,
जब अव्यक्त रही वह निर्गुण, जब साकार सचेतन है ।
कहो व्यक्त, अव्यक्त, ब्रह्म के ही ये भिन्न विचार रहे,
कह सकते ‘अनादिसिद्ध’ वह होकर विश्वाकार रहे ।
निर्गुण अरु साकार नाम ये, समझाने को कहे गए,
पर यथार्थ में भाव न दोनों में से कोई एक गहे ।
ढले स्वर्ण को पांसा कहते, जिससे बनते आभूषण,
खो जाता आकार स्वर्ण का, ढल जाता है वह जिस क्षण ।
विश्व विलय हो जाने पर भी अस्तित्ववान रहता,
पूँछ सकते हैं शब्द, शब्द का लेकिन अर्थ नहीं पूँछता ।
जल की लहरें उठती-गिरती जल लेकिन सामान्य रहे,
भूत नष्ट होने पर भी, जो ब्रह्म, सदा अविनष्ट रहे ।
अव्यक्त ऊर्ध्व लौकिक है जो, लोकोत्तर है, वह नित्य रहा,
सारे परिवर्तन बीच नहीं वह रे परिवर्तनशील रहा ।
अव्यक्त एक जिसमें प्राणी जो मुक्त नहीं करते प्रवेश,
दूजा लोकोत्तर शुद्ध तत्व, मुक्तात्मा का जिसमें प्रवेश ।
लयबद्ध चलें दिन रात सतत, लौकिक भूतों को भावित कर,
जो शाश्वत तत्व रहा उसको, कर पाते नहीं प्रभावित पर ।
लौकिक गति के ऊपर बसता, भगवान परे पर ब्रह्म रहा,
जो योगी पा लेता उसको, वह कालचक्र के परे रहा । क्रमशः…