‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 90 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 90 वी कड़ी ..

                               अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’

  अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “

श्लोक  (१६)

ऊपर से लेकर नीचे तक प्राकृत जग के जो लोक रहे,

अरु ब्रह्मलोक भी उन सबसे नश्वरता गुण में साथ जुड़े ।

होता है पुनरागमन यहाँ क्रम जन्म मृत्यु का दुखदायी,

पर पुनर्जन्म से मुक्त रहा, वह जिसने मेरी गति पाई ।

 

ब्रह्म भी मुक्त न हो पाते, इस पुनर्जन्म के चक्कर से,

जिनमें अभिमान अहम बाकी, वे फिर फिर फेर में पड़ते ।

किन लोकों तक पहुंचे जीवों का होता पुनर्जन्म भगवन,

जिज्ञासा से भर आया है, हे केशव मेरा चंचल मन ?

 

होता न पेट में दर्द उसे जो व्यक्ति मृतक हो जाता है,

या जागा है जो व्यक्ति स्वप्न में नहीं डूबने पाता है ।

मुझमें जो लीन हुआ जग में, वह लिप्त नहीं होने पाता,

पाकर मुझको वह जन्म-मरण से मुक्त सदा को हो जाता ।

 

हे अर्जुन ब्रह्मलोक तक सारे लोक रहे पुनरावर्ती,

दिकपाल,लोकपति, इन्द्रभुवन सबका जीवन है आवर्ती ।

सब रहे काल के घेरे में, सबकी अपनी सीमा रेखा,

केवल मैं कालातीत जहां कोई न कभी दस्तक देता ।

 

मुझ तक जो पहुंच गया उसको, नीचे न उतरना पड़ता है,

परिवर्तन से वह परे हुआ, जो मुझसे आकर जुड़ता है ।

 

श्री हरि के नाभि-कमल से जो उत्पन्न सृष्टि कर्ता ब्रह्मा हैं

हिरण्यगर्भ, अधिदैव वहीं, वे रहे प्रजापति सूत्रात्मा

वे ऊर्ध्वलोक में वास करे, कहलाता है जो ब्रह्मलोक

चौदह भुवनों का शिखर रहा, त्रिभुवन का मस्तक ब्रह्मलोक !

श्लोक  (१७)

युग चार बीतने पर अर्जुन होता युग चक्र एक पूरा,

ऐसे सहस्त्र युग चक्र रहे, तब ब्रह्मा का दिन हो पूरा ।

इतनी ही लम्बी रात रही, ब्रम्हा की, अरु यह अहोरात्र,

है काल तत्व के सागर की, मापक कोई अणु-बूँद मात्र ।

 

होते हैं अहोरात्र विद वे, जो काल तत्व को जान सके,

मुझ कालातीत पुरुष को ऐसे, योगीजन पहिचान सके ।

जो लोक अनित्य रहे उनके सुख भोग अनित्य विनाशी है,

आसक्ति लोक परलोक कहीं की भी हो आत्म विनाशी है।

 

सत, त्रेता, द्वापर अरु कलयुग, मिल चार ‘युगीतक’एक रहा,

गत हुए युगी तक जब हजार, तब एक दिवस का कल्प बना।

दो कल्प मिलाकर अहोरात्र, अर्थात एक दिन ब्रह्मा का,

सौ वर्ष आयु इस गणना से, लगता है अन्त न ब्रह्मा का ।

 

पर उसे नित्यता से नापें, यह आयु, कौंध ज्यों बिजली की,

जो क्षणिक रही नश्वर जग में, पल भर में ही ओझल होती।

प्राकृत जग के स्वामी ब्रह्मा, उन जैसा जगत अनित्य रहा,

बुदबुद जैसा सागर तल पर, पल में उभरा, पल में बिखरा

 

सतयुग में है सत्यांश अधिक, अत्यल्प पाप का अंश रहे,

त्रेता में सत्य घटे थोड़ा, थोड़ा त्रेता में पाप बढ़े ।

द्वापर में दोनो सम होते, जितना है पुण्य पाप उतना,

कलयुग में लेकिन पुण्य घटे, बस पापाचार हुआ तिगुना ।

 

होता है प्रलय न बचता कुछ, फिर नये सिरे से सृष्टि बसे,

सृष्टा ब्रह्मा होता पैदा, फिर से वह अपनी सृष्टि रचे ।

हो रहा उदय ब्रह्माओ का, हो रहा विलय उनका प्रतिक्षण,

जीवन कितना भी लम्बा हो, होता पर क्षण भंगुर जीवन ।

 

युग चार, हजार बार बीतें तब ब्रह्मदेव का दिन होता,

ऐसी ही चौकड़ियाँ हजार बीतें तब रात्रिकाल होता ।

होता दिन में अभिव्यक्त विश्व, वह रहा विश्व का व्यक्तकाल,

जो काल रात्रि का होता है, वह जग का है अव्यक्त काल ।

 

देवों की माप समय की हमसे, रही तीन सौ साठ गुनी,

जो अवधि वर्ष की अपनी है, देवों की वह दिन रात बनी ।

देवों का वर्ष कि दिव्यवर्ष, बारह हजार जब गत होते,

तब एक दिव्ययुग होता है, हम जिसे महायुग है कहते ।

 

ऐसे हजार जब चतुर्युगी बीतें तब हो ब्रह्मा का दिन

इतने ही युग की रात रही, अरबों वर्षों का परिसीमन ।

ब्रह्मा के दिन को कल्प कहें, या सर्ग, रात को प्रलय कहें,

इस कल्प, प्रलय की गणना से, सौ वर्ष आयु वे पूर्ण करें

 

दिन-रात्रि रुप जो काल तत्व, इसको समझा करते ज्ञानी,

जो मूल्यवान क्षण व्यर्थ, गवाँ देते वे होते अज्ञानी ।

योगी हर क्षण को जीवन के सार्थक कर लाभ उठाता है,

जिस क्षण वह मुझको पा लेता, जीवन सार्थक हो जाता है। क्रमशः…