
अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’
अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “
श्लोक (१०)
जग जीवन के अंतिम क्षण में, मन भक्ति योग बल से साधे,
भूमध्य बसाकर प्राण शक्ति, जो पुरुष प्राण अपने त्यागे ।
वह योग बली वह मृत्यु स्वयं, अपनी अपने हाथों चुनता,
वह परम पुरुष को पा जाता, उसको है परमधाम मिलता ।
जो अचल भाव से अन्त समय, अपने मन को एकाग्र करे,
भ्रकुटी के मध्य ऊध्वरेता, प्राणों का जो आधान करे ।
सम्पूरित भक्ति भावना से, करता जो जन भगवत्स्मरण,
भगवान प्राप्त होते उसको, सार्थक होता उसका जीवन ।
अष्टांग योग का अभ्यासी, करता प्राणों का संचालन,
प्राणों का करता वह निरोध, नियमों का करके परिपालन ।
वह रहा योग बल योगी का, सामर्थ्य योग से प्राप्त करे,
प्राणों का संचालन निरोध, वह भली भाँति अभ्यास करे ।
दोनों भौहों के बीच भ्रकुटि, कहते हैं आज्ञाचक्र उसे,
वह द्विदल वाला होता है, उसमें त्रिकोणी योनि बसे ।
जिसके कोनों में अग्नि, सूर्य, अरु चन्द्र समाहित होते है,
करके निरोध प्राणों का योगीजन उसमें स्थिर होते हैं ।
यह प्राणों का स्थापन ही कहलाता प्राणों का निरोध,
महा प्रयाण के अवसर पर योगी करते जिसका प्रयोग ।
वे दिव्य योगबल से अपने प्राणों को वहाँ चढ़ा लेते,
कर सप्त कोश का भेदन फिर, वे परम पुरुष को पा लेते ।
कहते हैं आज्ञा चक्र जिसे, हैं सप्तकोश उसके समीप,
जे इन्तु, बोधिनी, नाद रहे, वे उर्धचन्द्रिका के प्रतीक ।
जे महानाद वे कला कोश, रवि, सोम, अग्नि का मिलन जहाँ,
उन्मनी कोश अन्तिम होता, है परम पुरुष का वास जहाँ ।
सत्कमों से सत्संग मिले, साधक को सिद्ध पुरुष मिलते,
हरिकृपा नहीं जब तक होती, तब तक क्या अन्तर्पट खुलते।
इस योग मार्ग के साधन में, रहना होता है सावधान,
मानो पैनी असि धार जहां, होता है साधक धावमान ।
हो गया ब्रम्ह का ज्ञान जिसे, अभ्यास मृत्यु का जिसे हुआ,
एकाग्र चित्त करे अपना, साधक वह पद्मासीन हुआ ।
उत्तर को मुंह करके अपना, हो जाता है वह आत्मलीन,
अपने प्राणों को योग क्रिया से, करता वह नभ में विलीन ।
मन पर रख आत्म नियंत्रण वह, चित्त-प्राण भ्रकुटि में पहुँचता,
घण्टे की ध्वनि के विलय सदृश, वह महाप्राण में खो जाता।
मटके के ढंके दीप जैसा, बुझना न दीप का ज्ञात रहे,
कब महाप्राण से प्राण मिला, इसका न उसे कुछ मान रहे ।
तज देता अपनी देह सहज, पर ब्रह पुरुष में हुआ लीन,
अर्जुन यह मेरा निज स्वरुप, पाता जिसको योगी प्रवीण ।
यह सम्भव है केवल उनको जो योग शक्ति को साध सके,
जो मृत्यु-समय का कर चुनाव प्राणों का कर अवधान सके ।
श्लोक (११)
जिसे वेदविद अक्षर कहते, कहें विरतजन अविनाशी,
जिसमें करते हैं प्रवेश, आसक्ति-रहित हो सन्यासी ।
जिसे प्राप्त करता वह साधक, ब्रह्मचर्य व्रत सधा जिसे,
अक्षर ब्रह्म, परमपद है क्या, बतलाता हूँ पार्थ तुझे ।
परमात्मा का ज्ञान करने वाला वेद कहाता है,
वेदों के तात्पर्य बोध से, ज्ञाता उसको पाता है ।
ज्ञान वेद का जिनको वे ही उसको नित्य बताते है,
कभी न उसका क्षय होता है, ज्ञानी उसको पाते है ।
वे भी करते प्राप्त उसे जो होते त्यागी सन्यासी,
दूर अविद्या को कर मन से, होते वे उसके न्यासी ।
ब्रह्म प्राप्ति के लिये ललकता जिनका मन वे व्रतधारी,
पालन कर व्रत ब्रहमचर्य का, बन जाते हैं अधिकारी ।
जो रहा ज्ञान का ज्ञान, खान जो मानो सारे ज्ञानों की,
विस्तीर्ण गगन में वायु जनित गिनती क्या तानों बानों की ।
जो नहीं नाप में किसी ज्ञान की किसी काल में आ पाता,
उस अविनाशी को इसलिये अक्षर या ब्रहम कहा जाता ।
विषयों का विष कर दूर, जिसे साधक सन्यासी भजते हैं,
वे विरत निरिच्छ पुरुष, जिसको पाने की इच्छा करते है ।
उस पद को देह त्याग कर ही, केवल पाया जा सकता है,
पद ओंकार जीवन में, जीते जी गाया जा सकता है
ईश्वरवादी सर्वोच्च स्वर्ग, विष्णु का धाम उसे कहते,
अविनश्वर आगम बतलाते मुनि वीतराग जिसमें रहते ।
धार्मिक जिज्ञासु कामना जिसको पाने करते जीवन में,
वह दशा इन्द्रियातीत रही थोड़े में बतलाता हूँ मैं ।
हे पार्थ, ब्रह्म जो निर्विशेष, ओंकार मन्त्र पावन जिसका,
विद्वान वेदवादी महर्षि, साधन करते जिसके जप का ।
करते प्रवेश वे अनासक्त व्रत ब्रह्मचर्य का धारण कर,
सारांश कहूँ उसका तुझसे, उस मुक्ति मार्ग पर तू पग धर।क्रमशः…