मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’
श्लोक (२६,२७)
हे अर्जुन मैं भगवान स्वयं, सारे घटना क्रम जान रहा,
जो पूर्वकाल में घटित हुए,या घटे आज, मैं जान रहा ।
कल क्या भविष्य में घटना है, उसका भी ज्ञान रहा मुझको,
मैं जान रहा सब जीवों को, कोई न जानता पर मुझको ।
हे अर्जुन, इच्छा द्वेषजन्य, द्वन्दों, का जग विस्तार रहा,
सुख-दुख, शुभ-अशुभ, विषाद-हर्ष, इनका मन पर अधिकार रहा।
मोहित हैं जीव जगत के सब,इन पर भ्रमजाल रहा गहरा,
मन-बुद्धि जीव के सम्मोहित उन पर द्वंदों का है पहरा ।
उन सभी प्राणियों को जानूँ, हो चुके हुए जो होने को,
पर अर्जुन श्रद्धा भक्ति रहित, कोई न जान पाया मुझको ।
हे शत्रु विजेता, सुन जग में, है द्वैत, द्वन्द भ्रम के कारण,
जग रहे बढ़ाता द्वेष बुद्धि, करके इच्छाओं को धारण ।
तनु से परिणय कर अहंकार, इच्छा को जन्म दिया करता,
होती जब कन्या बड़ी, द्वेष उससे विवाह अपना करता ।
उत्पन्न द्वन्द होता उनसे, आशा-पय पी बलवान बने,
फिर असन्तोष की पी मदिरा, वह भ्रम के जंगल में भटके ।
श्लोक (२७)
रह जाता महापातकों का जंगल, पीछे अति दूर कहीं,
कामादि राह बटमारों से, वह नहीं ग्रसित फिर रहा कभी ।
अर्जुन जिसके मन में इच्छा, हो मुक्ति प्राप्ति की जाग रही,
वह मुक्ति प्राप्त कर ही लेता, बाधाओं को कर दूर सभी ।
श्लोक (२८,२९,३०)
वे जिनने पुण्य सुकर्म किए, परिशुद्ध आचरण है जिनका,
सम्पूर्ण पाप जिनके विनष्ट, है चित्त शान्त संयत जिनका ।
वे मुक्त मोह से हुए पुरुष, भजते मुझको अविराम पार्थ,
निष्ठा पूर्वक सेवा करते, तत्वार्थ प्राप्त करते यथार्थ ।
जो जरा मरण से मुक्ति हेतु,करते प्रयत्न प्रतिपल अर्जुन,
वे भक्ति भाव के आश्रय से, वश में कर लेते अपना मन ।
वे हैं यथार्थ ही ब्रह्मभूत, इसलिए कि तत्त्व को वे जाने,
अध्यात्म सकाम कर्म की विधि, सम्पूर्ण रूप से पहिचाने ।
जो जाने तत्व प्रकृति के क्या, परमेश्वर क्या जो यह जाने,
आधार देवता-यज्ञों का, है कौन उसे जो पहिचाने ।
इन तत्त्व रूप में भक्तों ने, जितना जो भी मुझको जाना,
अन्तिम क्षण में संयत मति से, भक्तों ने मुझको पहिचाना ।
हो गया पाप जिनका विनष्ट, वे पुण्यात्मा भजते मुझको,
वे द्वैत मोह से मुक्त हुए, व्रत पाल रहे पाने मुझको ।
जो मेरी शरण पकड़ लेते, आस्था जिनकी निष्कम्प रही,
मेरे प्रति लगन अटूट रही, जिनकी हो साध अबाध चली ।
हे अर्जुन भक्त भाव भावित, मुझको हर भाँति भजा करते,
निष्काम भाव से कर्मों को, जो सम्पादित अपने करते ।
जो राग-द्वेष से जनित द्वन्द से, मुक्त, मोह से मुक्त रहे,
दृढ़ निश्चय रहा भक्ति में, जो मेरी सदैव तल्लीन रहे ।
वे पुरुष ब्रह्म को जान रहे, वे जान रहे अध्यात्म पूर्ण,
सम्पूर्ण कर्म वे जान रहे, वे जान रहे हैं ऐक्य पूर्ण ।
सब कुछ हैं वासुदेव जग में, इस तरह भक्त अनुभव करता,
मुझको समग्रता से अपने, जीवन में वह अनुभव करता ।
सारे जग में वे वासुदेव, का करते हैं अर्जुन दर्शन,
देखें मुझसे ही भासित है, सारा जग जीवन जड़ जंगम ।
कुछ जीवन में ही पा लेते कुछ अन्त समय में पाते हैं,
जो भक्त मुझे पा लेते हैं,वे परमधाम को जाते हैं ।
क्षर पुरुष कि अपरा प्रकृति रही, अधिभूत, उसे पहिचान रहा,
जो हिरण्यगर्भ का सूत्रात्मा, अधिदैव उसे जो जान रहा ।
अधियज्ञ, वास ईश्वर का जीवों में जिसने पहिचान लिया,
वह भक्त प्राप्त होता मुझको, कौन्तेय उसे मम धाम मिला ।
।卐। इति ज्ञान विज्ञान योगो नाम सप्तमोऽध्याय ।卐।