
षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (४४)
पिछले अभ्यासों का प्रभाव, उसको फिर फिर आकृष्ट करे,
फिर बुद्धियोग साधन में वह असहाय हुआ आगे उतरे ।
ऐसा जिज्ञासु बुद्धियोगी, दुर्लक्ष्य विधानों का करता,
वह योग सिद्धि के लिए नहीं वैदिकता का पालन करता
भोगों के वश में हुए व्यक्ति को बिषयजाल से छुड़वाए,
अभ्यास पूर्वजन्मों का ही उससे नव साधन करवाए ।
समबुद्धि रूप यह योग, इसे, जिज्ञासु प्राप्त करना चाहे,
श्रद्धा उसकी बढ़ती जाए, निज रूप एक दिन लख पाए ।
आगे ले जाया जाता है पिछले अभ्यासों के द्वारा,
श्रीमन्तों के घर जन्मे पर, ढीला पड़ता बन्धन सारा ।
वह विवश हुआ सुख भोग तजे, जागे जब पिछला संस्कार,
सध जाता उसको ज्ञान योग, कर लेता वह आत्मोद्धार ।
उत्कर्ष बुद्धि मिलती उसको, आँखों का दिव्यांजन बनती,
जो छिपा भूमि के भीतर धन, निर्मल मति उस धन को लखती ।
अभिप्राय बिना गुरु, साधन के वह लगे समझने अनायास,
मन प्राणवायु में मिल जाता जिसको मिल जाता चिदाकाश ।
वैदिक नियमों का परिपालन, उसको न जरुरी रह जाता,
जब शब्द ब्रह्म में साधक वह, निष्णात स्वयं ही हो जाता ।
कर लेता पार नदी उसको, फिर कहाँ जरूरी नाव रही,
संस्थात्मक सन्दर्शन की सीढ़ी, पहिले ही गिर गई कहीं ।
श्लोक (४५)
इस जीवन में ही मुक्त हुआ, अपने सब पापों से योगी,
अभ्यास निरत जो रहा सदा जो रहा पूर्व-संस्कार बली ।
संसिद्धि जन्म में प्राप्त करे,कर ले प्रभु का साक्षात्कार,
वह प्राप्त परम गति को होता, होकर जीवन में निर्विकार ।
अभ्यास सतत करते रहकर, सप्रयत्न एक दिन भवरोगी,
जन्मों जन्मों की शुद्धि बाद, हो जाता शुद्ध कर्म योगी ।
निर्मल मति, पाप न रह जाते परमोच्च अवस्था को पाता,
वह मोह-द्वंद से मुक्त हुआ, हे पार्थ परम गति पा जाता ।
साधन हो जाते प्राप्त सभी, सदमार्ग स्वयं खुलता जाता,
पीछे रह जाता है विवेक पर ब्रह्मरूप सम्मुख आता ।
मन का बादल अदृश्य होता,सम हो जाती है प्राणवायु,
आकाश स्वयं में लीन हुआ, मानो वह हो जाता चिरायु ।
इस जीवन में जो विफल हुआ, पर साध नहीं अपनी छोड़े,
जन्मों जन्मों रह साध निरत जो संस्कार अपने जोड़े ।
वह एक दिवस पा ही जाता, गति जिसे सिद्ध योगी पाते,
पापों का कर जो प्रच्छालन, गह कर्मयोग सद्गति पाते ।
पूरा न प्रयोजन हो पाता, परमात्मा का, यह ध्यान रहे,
जब तक न पकड़ सत-पथ मनुष्य, खुद बढ़, अपना उद्धार करे ।
कर ले संयोग न ईश्वर से, सिरजा जिसने अपने तन से,
हर तत्व इसे समस्वर होना, पाना है मुक्ति इसे जग से ।
हर एक यहाँ जो जन्मा है वह रूप रहा परमात्मा का,
यह तथ्य समझना है उसको, रोके उसको अज्ञान रहा,
ईश्वर का अंश ईश में जब, घुल मिल हो जाए सिद्ध काम,
पापी या पुण्यात्मा सबको,लेना है ईश्वर में विराम ! क्रमशः…