‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 73 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 73 वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (४१)

पुण्यात्माओं के लोकों में, वर्षों तक सुख उपभोग करे,

फिर लेकर जन्म धरा पर वह अपनी अपूर्णता पूर्ण करे ।

कुल जहाँ जन्म होता उसका, सम्पन्न शुद्ध सात्विक रहता,

वह योग भ्रष्ट फिर जीवन में, निज-दर्शन का अवसर गहता ।

 

वह पुरुष पुण्यवानों के भव को, पाता, उत्तम लोकों को,

करता निवास उन लोकों में, भोगे उन लोकों के सूख को ।

फिर शुद्ध आचरण जिसके उसके घर में करता जन्म ग्रहण,

यह दुर्लभ जन्म रहा उसका सबको न प्राप्त होता अर्जुन ।

 

सौ यज्ञ पूर्ण करने पर भी दुर्लभ प्रवेश जिन लोकों में,

पाता प्रवेश साधक योगी, पूर्णत्व बिना उन लोकों में ।

सुख भोगों में रुचि नहीं रहे,पा जाता फिर से धराधाम,

इसलिए कि इस जीवन में अब, हो सके मनुज वह सिद्धकाम ।

 

मिलता है कुल पवित्र उसको, होता है जहाँ धर्मपालन,

समृद्धि सुखों की वृद्धि जहाँ सतवृत्ति करे तन को धारण ।

ऐश्वर्य जहाँ फूले महके शुचि शान्ति करे शीतल छाया,

हो, जहाँ साधना सहज सिद्ध बाधा न बने जग की माया ।

 

अथवा जो पथच्युत है योगी, जाता न दूसरे लोक कहीं,

ज्ञानी कुल में ले जन्म पुनःपूरा करता सत्कर्म यहीं ।

कुल ज्ञान वान योगी का हो, यह अतिशय दुर्लभ बात रही,

कुल ऐसे विद्यमान जग में, जिनपर हरिकृपा विशेष रही ।

 

रागी योगी से अलग रहा वैराग्यवान योगी अर्जुन,

वह नहीं स्वर्ग-सुख में बँधता, धनिकों के घर लेता न जनम ।

वह सिद्ध ज्ञानियों के कुल में फिर यहीं जन्म पा जाता है,

यह दुर्लभ जन्म रहा जग में वैरागी जिसको पाता है ।

 

कुल होता है जो सन्तोषी, ब्रह्मानुभूति जिसने पाई,

विकृति न विकारों की जिसमें अपनी जड़ कहीं जमा पाई ।

होता है ज्ञान-हवन जिसमें, ज्ञानाग्नि प्रदीप्त जहाँ रहती,

परमात्मा में परमात्मा की, करता है कृषक जहाँ खेती ।

 

वैराग्य प्रधान रहा जिसका, पर सिद्धि नहीं जो पा पाया,

वह पृथ्वी पर ही रहा यहाँ, उसने फिर जन्म यहीं पाया ।

कुल रहा ज्ञानियों का जिसमें, वह जन्म दुबारा पाता है,

सान्निध्य ज्ञानियों का पाकर, वह पूर्ण सिद्ध हो जाता है ।

श्लोक (४३)

हे अर्जुन नव शरीर में वह फिर बुद्धियोग अपना पाता,

जन्मान्तर जिसके लिए लगें, वह पुण्य-पर्व वह पा जाता ।

इस तरह योग से युक्त पुरुष, संसिद्धि हेतु साधन करता,

होता है सफल अन्ततः वह, परमोच्च शिखर को वह वरता।

 

वह पूर्व जन्म के संस्कार, इस नई दह में प्राप्त करे,

बिन किए प्रयत्न ज्ञान उसका, जो अर्जित था उसमें उभरे ।

पहिले से अधिक सजग होकर, आरूढ साधना पर होता,

साक्षात्कार का भाव प्रबल, पहिले से अधिक सुदृढ होता ।

 

होती है प्रगति बहुत धीमी, जब साधक सिद्ध मार्ग गहता,

जन्मों पर जन्म बीत जाते, पर जितना सधा साथ रहता ।

होता न नष्ट कोई प्रयत्न, वह क्रमशः जुड़ता जाता है,

चलते चलते दिन आता वह, जब साधक मंजिल पाता है।

 

सम्बन्ध बना लेते हम जो,जो प्राप्त शक्तियाँ कर लेते,

वे नहीं नष्ट हो पाते हैं, जब मृत्यु समय हम तन तजते ।

वे बन रहते प्रारम्भ बिन्दु, जब नई देह हम पाते हैं,

इस नई देह में हम उनको, ‘फिर आगे और बढ़ाते है।

 

सम भाव पूर्व जन्मों का यह संयोग बुद्धि से आता है,

साधक के जीवन में इतना यह योग सहज घट जाता है।

होतीं विद्याएँ प्राप्त, ज्ञान उसका, मुखरित होने लगता,

वह नई चेतना लिए हुए, अपना पथ आलोकित करता । क्रमशः…