
षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (३७,३८,३९)
अर्जुन उवाच :-
अर्जुन बोले हे कृष्ण, एक संशय फिर मन में उपज रहा,
क्या गति होती उस योगी की, जिससे न पूर्ण यह योग साधा ?
यों भक्ति मार्ग पर चला मगर, हो गया भ्रमित वह अन्त समय,
कर सका न जो साक्षात्कार हो सका नहीं जो निज में लय ।
घर से तो बाहर निकल पड़ा, लेकिन न घाट तक जो पहुँचा,
क्या घर से गया घाट से भी,उसका कैसा प्रारब्ध रहा ?
भगवन असमय के मेघ सदृश क्या आश्रय रहित बिखर जाता?
सुख भोग न मिलता लोकों का क्या नहीं आत्म सुख भी पाता?
हो उभय भ्रष्ट मिट जाता क्या, योगी न सधा जिसका संयम?
नियराया जिस क्षण अन्तकाल, संयत रह सका न जिसका मन?
पा सका न सिद्धि योग में जो, भगवन उसकी गति क्या होती?
गति ऊर्ध्व मिले या अधो मिले ऐसी जग की आस्था बनती ।
अथवा जिसका स्वामी न रहा ऐसे प्रदेश में जा भटके?
या शाश्वत क्षण भंगुर, दोनों, जीवन से वंचित हो अटके?
उनका क्या होता, मार्ग कठिन, जो अपनाते पर विफल रहे?
क्या सारा यत्न व्यर्थ होता, जिसको न योग संसिद्ध रहे?
पूरा न किया जा सकता जो, वह कार्य कहाँ तक उचित रहा?
या व्यक्ति व्यर्थ क्यों उसे करे, जिसको करने न समर्थ रहा?
क्या बाद मृत्यु के भी भगवन, है कोई अवसर योगी को?
संसिद्धि प्राप्त हो नहीं सकी, मरते दम तक जिस योगी को ।
हे कृष्ण, तुम्हीं मेरा संशय कर सकते दूर, समर्थ तुम्हीं,
प्रभु भेदन कर, निर्मूल करो, कर सकता इसको अन्य नहीं ।
कर्मों का भेद आप समझें, जानें रहस्य सब रचना के,
भगवन सुर नर, मुनि, ज्ञानी सब, केवल सीमित क्षमता रखते ।
श्लोक (४०)
श्री भगवानुवाच :-
भगवान कृष्ण ने कहा पार्थ, योगी जो हितकर कर्म करे,
वह रहे स्वर्ग में या भू पर, जीवित रहता वह नहीं मरे ।
हे सखे, सदाचारी है जो, उनका न कभी अनहित होता,
होता न अमंगल कभी पार्थ, परमार्थ न यदि पूरा होता ।
आत्मोद्धार के लिए, कर्म करता, न हुई दुर्गति उसकी,
परलोक लोक दोनों में ही, गति नष्ट नहीं होती उसकी ।
अर्जुन तू सखा, भक्त मेरा, दुर्गति की क्यों चिन्ता करता,
साधक रुक रहता जहाँ, वहीं से वह हरदम आगे बढ़ता ।
हे पार्थ मोक्ष का आकांक्षी, रुकता बस मोक्ष प्राप्त करके,
उसकी गति केवल मोक्ष रही, चल पड़ता फिर विराम करके ।
करता विराम जब थक जाता, लेकिन न मार्ग पर रुकता है,
सूर्यास्त पूर्व पा सका नहीं, तो पुनः जागकर चलता है
हे पार्थ नहीं होता विनाश ज्यों लोक उसे परलोक रहा ,
उसकी न कभी दर्दशा हई,जिससे जीवन में भला सधा ।
होता न भले का अन्त बुरा,विधि रखता कर्मो का लेखा,
सत्कर्म रहे जिसके उसको वह नहीं कष्ट कोई देता । क्रमशः…