रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (९)
वह योगी परम विशेष रहा, जिसकी सब में समदृष्टि रही,
जो रही भावना मित्रों को, दुश्मन के प्रति भी वही रही ।
हो उदासीन मध्यस्थ सुहृद, ईर्ष्यालु रहा या सम्बन्धी,
या साधु रहा, या पापात्मा, सबके प्रति बुद्धि समान रही
हो सुहृद मित्र अथवा बैरी, मध्यस्थ रहे या उदासीन,
हो पात्र द्वेष का या प्रियजन, समभाव रखे परमात्म लीन ।
क्या राग-द्वेष,क्या भेदबुद्धि, जिसमें रहता इनका अभाव,
वह रहा श्रेष्ठ योगी अर्जुन, जाग्रत जिसका समत्त्व भाव ।
हो गया ज्ञान जिसको अर्जुन ‘मैं स्वयं विश्व मैं विश्वात्मा’,
फिर कौन पराया है उसको, फिर कौन रहा उसको अपना?
फिर कौन रहा निष्पक्ष कौन मध्यस्थ कौन है पक्षपाती?
है कौन भला, है कौन बुरा, है कौन सन्त, है कौन पापी
एकत्व चराचर का उसका उसकी मति का सब भेद हरे,
सब अलंकार सोने के हैं यो विश्व रूप दृग में उभरे ।
वह तत्व शुद्ध सच्चा देखे, देखे उनके प्रतिबन्ध नहीं,
आत्मा में देखे परमात्मा ही व्याप रहा है सभी कहीं ।
समबुद्धि यही है तीर्थराज, जिसका दर्शन दे समाधान,
सुस्थिर हो चित्त भ्रमित जन का, जीवन हो जाता धर्मप्राण ।
दे दृष्टि दिशा दे महासिद्धि, स्वर्गादिक सुख होते फीके,
ये परम सिद्ध योगी होते उद्धारक अवनी के अघ के ।
होता है जिसका अस्त नहीं, वह ज्ञान सूर्य उर में जागा,
मुदितावस्था में रहे सदा, जिसने जंजालो को त्यागा ।
तीनों लोकों में विचरे वह, एकाकी, संग्रह नहीं करे,
भर जाता सुख उस हृदय में, जो उस योगी का ध्यान धरे । क्रमशः…